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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ द्वितीयोऽध्यायः
चारित्रमोहनीयके भेद नोकषायवेदनीय सम्बन्धी तीन वेदोंमेंसे एक नपुंसक वेदनीय कर्मका ही उदय हुआ करता है, जो कि अपने उदयमें अशुभ गति नाम अशुभ गोत्र अशुभ आयुके उदयकी भी अपेक्षा रखता है, और जिसका कि पूर्वजन्ममें ही निकाचितबन्ध हो जाता है ।
भावार्थ - जो ग्रहण करते ही आत्मा के साथ इस तरह मिल जाता है, जैसे कि दूध पानी आपस में एक होजाते हैं, ऐसे अध्यवसाय विशेषके द्वारा अविभागिरूपसे आत्मप्रदेशों के साथ सम्बद्ध कर्मविशेषको ही निकचितबन्ध कहते हैं । नरकगति और सम्मूर्छन - जन्म धारण करनेवाले जीवों के पूर्वजन्ममें ही नपुंसकवेदका निकाचितबन्ध होजाता है । इसका उदय अशुभ गति आदि कर्मोके उदय के बिना नहीं हुआ करता । नारक और सम्मूर्छित जीवों के यह निमित्त भी है, अतएव उनके नपुंसकवेदका ही उदय हुआ करता है ।
जिन जीवोंमें नपुंसकलिङ्गका सर्वथा अभाव पाया जाता है, उनको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं -- सूत्र -न देवाः ॥ ५१ ॥
भाष्यम् - - देवाश्चतुर्निकाया अपि नपुंसकानि न भवन्ति । स्त्रियः पुर्मासश्च भवन्ति । तेषां हि शुभगतिनामापेक्षे स्त्रीपुंवेदनीये पूर्वबद्धनिकाचिते उदयप्राप्ते द्वे एव भवतः नेतरत् । पारिशेष्याच्च गम्यते जराखण्डपोतजास्त्रिविधा भवन्ति-स्त्रियः पुमांसो नपुंसकानीति ।
अर्थ - चारों ही निकायके देव नपुंसक नहीं हुआ करते । वे स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी ही हुआ करते हैं, क्योंकि उनके शुभ गति नामकर्म शुभ गोत्र शुभ आयु और शुभ वेदनीयकर्मके उदयकी अपेक्षासे स्त्रीवेद और पुंवेदका ही उदय हुआ करता है, जिसका कि पूर्वजन्म में ही निकाचितबन्ध होजाता है । देवगतिमें नपुंसकवेदका उदय नहीं होता । क्योंकि उसका पूर्वजन्ममें बन्ध नहीं हुआ है, और वहाँ उसके उदयके योग्य सहकारी कारण जो अपेक्षित हैं, वे भी नहीं हैं । इस प्रकार जब नरकगति और सम्मूर्छन जन्मवाले तथा देवगतिवाले जीवोंके लिङ्गका नियम बता दिया गया, तब इनसे जो शेष बचे उन जीवोंके कौन कौनसा लिङ्ग होता है, यह बात अर्थादापन्न हो जाती है । अर्थात् जरायुज अंडज और पोतज इन शेष जीवोंके स्त्रीलिङ्ग पुलिङ्ग नपुंसकलिङ्ग ये तीनों ही प्रकारके वेद पाये जाते हैं, यह पारिशेष्य से ही समझमें आ जाता है । अतएव इनके लिङ्गका नियम बतानेके लिये सूत्र करने की आवश्यकता नहीं है ।
भाष्यम् - अत्राह - चतुर्गतावपि संसारे किं व्यवस्थिता स्थितिरायुषः उताकालमृत्युरध्यस्तीति । अत्रोच्यते- द्विविधान्यायूंषि अपवर्तनीयानि अनपवर्तनीयानि च । अनपवर्तनी - यानि पुनद्विविधानि सोपक्रमाणि निरुपक्रमाणि च । अपवर्तनीयानि तु नियतं सोपक्रमाणीति । तत्र -
१ ---- जिसका फल अवश्य भोगना पड़े, उसको निकाचित कहते हैं । अथवा जिसकी उदीरणा संक्रमण उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थाएं न हो सकें, उसको निकाचितबंध कहते हैं। देखो गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४४०.
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