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सूत्र ५० ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१२९ है । वैक्रियसे औदारिकवालोंका प्रमाण असंख्यातगुणा है । औदारिकसे तैजस कार्मणका प्रमाण अनन्तगुणा है।
भाष्यम्-अत्राह-आसु चतसृषु संसारगतिषु को लिङ्गनियम इति । अत्रीच्यते।-जीवस्यौदयिकेषु भावेषु व्याख्यायमानेपूक्तम्, त्रिविधमेव लिङ्गं स्त्रीलिङ्गं पुंलिङ्ग नपुंसकलिङ्गमिति । तथा चारित्रमोहे नोकषायवेदनीये त्रिविध एव वेदो वक्ष्यते, स्त्रीवेक्षः पुंदेदः नपुंसकवेद इति । तस्मात्रिविधमेव लिङ्गमिति । तत्र
अर्थ-प्रश्न-संसारी जीवोंके शरीरोंका लक्षण और नानात्व बताया, परन्तु संसारमें चार प्रकार जो गति बताई हैं-नारक तिर्यक् मानुष और देव, उनमें लिङ्गका नियम कैसा है, सो अभीतक मालूम नहीं हुआ, कि किस किस गतिमें कौन कौनसा लिंग पाया जाता है। अतएव अब इसी विषयको कहिये, कि इन गतियों में लिंगका नियम किस प्रकारका है ? उत्तर-जीवके औदयिकभावोंका व्याख्यान करते हुए यह बात पहले ही कही जा चुकी है, कि लिङ्ग तीन ही प्रकारका है-स्त्रीलिङ्ग पलिङ्ग नपंसकलिङ्ग । इसी प्रकार चारित्रमोहनीयके भेद नोकषायवेदनीयके उदयसे तीन ही प्रकारका वेद हुआ करता है, स्त्रीवेद वेद नपुंसकवेद ऐसा भी आगे चलकर कहेंगे । अतएव यह सिद्ध है, कि लिंग तीन ही प्रकारके हैं।
भार्थ-पहले भी लिङ्गके तीन भेद बता चुके हैं, और आगे भी बतावेंगे, कि मोहनीयके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह । चारित्रमोहके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । नोकषायवेदनीय हास्यादिकके भेदसे नौ प्रकारका है । इन्हीं नौ भेदोंमें तीन वेदोंका वर्णन भी किया जायगा। जिसके उदयसे पुरुषके साथ रमण करनेकी इच्छा हो, उसको स्त्रीवेद कहते हैं । जिसके उदयसे स्त्रीके साथ संभोग करनेकी अभिलाषा हो, उसको पुरुषवेद कहते हैं । जिसके उदयसे दोनों ही प्रकारकी अभिलाषाएं हों, उसको नपुंसकवेद कहते हैं । इस प्रकार तीन वेदोंका स्वरूप प्रसिद्ध है । अतएव गतिभेदके अनुसार इन लिंगोंकी इयत्ताका निर्णय बताना आवश्यक है। इसीलिये प्रश्नकर्त्ताने भी यह न पूछ करके कि लिंग किसको कहते हैं, यही पूछा है, कि किस किस गतिमें कौन कौनसा लिङ्ग पाया जाता है ? तदनुसार ही उत्तर देनेके लिये आचार्य भी सूत्र करते हैं, और बताते हैं कि इन तीन प्रकारके लिङ्गोमेंसे
सूत्र-नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ भाष्यम्-नारकाश्च सर्वे सम्मूर्छिनश्च नपुंसकान्येव भवन्ति-न स्त्रियो न पुमान्सः। तेषां हि चारित्रमोहनीयनोकषायवेदनीयाश्रयेषु त्रिषु वेदेषु नपुंसकवेदनीयमेवैकमशुभगतिनामापेक्षं पूर्वबद्धनिकाचितमुदयप्राप्तं भवति, नेतरे इति।।
अर्थ-नरकगतिवाले सम्पूर्ण जीव और सभी सम्मूर्छन जन्म-धारण करनेवाले नपंसक ही हआ करते हैं। वे न तो स्त्री ही होते हैं, और न परुष ही होते हैं। उनके
१-न स्त्री न पुमान् इति नपुंसकम् ।
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