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________________ १२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः यह कार्य अन्य शरीरके द्वारा नहीं हो सकता । इसी प्रकार वैक्रियशरीरका प्रयोजन स्थूलसूक्ष्म अथवा एक अनेक आदि रूप धारण करना पृथ्वी जल और आकाशमें गमन करना तथा अणिमा महिमा आदि ऋद्धियोंकी प्राप्ति होना इत्यादि विभूति-ऐश्वर्यका लाभ होना ही वैक्रियशरीरका असाधारण कार्य--प्रयोजन है। इसी प्रकार आहारकशरीरका प्रयोजन है, कि सूक्ष्म व्यवहित और दुरवगाह पदार्थोके विषयमें उत्पन्न हुई शंकाओंका दूर होना । अथवा असंयमका परिहाण होना आदि । आहारका पाक होना तथा शाप देने और अनुग्रह करनेकी शक्तिका प्रकट होना, तैजसशरीरका प्रयोजन है। कार्मणका प्रयोजन भवान्तर को जाना आदि है। प्रमाण--औदारिकशरीरका प्रमाण एक हजार योजनसे कुछ अधिक है । वैक्रियशरीरका प्रमाण एक लक्ष योजन है । आहारकशरीरका प्रमाण रेनि-बद्धमुष्टि प्रमाण है। तैजस और कार्मणशरीरका प्रमाण लोकमात्र है। प्रदेशसंख्या --इसके विषयमें पहले कहा जा चुका है, कि तैनसशरीरके पहलेके शरीरोंके प्रदेश असंख्यातगुणे हैं, और अन्तिम दो शरीरोंके प्रदेश अनन्तगुणे । अर्थात् औदारिकसे वैक्रियके और वैक्रियसे आहारकके प्रदेश तो असंख्यातगुणे हैं, परन्तु आहारकसे तैजसके और तैजससे कार्मणके प्रदेश अनन्तगुणे हैं। __ अवगाहना-इस अपेक्षासे पाँचों शरीरोंमें जो विशेषता है, वह पूर्वोक्त प्रमाणसे ही समझ लेनी चाहिये । जैसे कि औदारिककी अवगाहना एक हजार योजनसे कुछ अधिक, इत्यादि । स्थिति-समय प्रमाणको ही स्थिति कहते हैं । औदारिककी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्यकी है । वैक्रियशरीरकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागर प्रमाण है। आहारकशरीरकी जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही प्रकारकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । तैजस कार्मणकी स्थिति अभव्योंकी अपेक्षा अनाद्यनन्त और भन्योंकी अपेक्षा अनादिसान्त है। ____ अल्प बहुत्व-हीनाधिकताको भल्प बहुत्व कहते हैं । पाँच शरीरोंमेंसे किस शरीरके धारण करनेवाले कम हैं, और किस शरीरके धारण करनेवाले अधिक हैं, इसके जाननेको ही अल्प बहुत्व कहते हैं। सबसे कम संख्या आहारकशरीरवालोंकी है। यह शरीर कभी होता है, कभी नहीं भी होता । क्योंकि इसका एक समयसे लेकर छह महीना तकका अन्तरकाल माना गया है । आहारकसे वैक्रियशरीरवालोंका प्रमाण असंख्यातगुणा १-यह प्रमाण विक्रियाकी अपेक्षासे है, मूल शरीरकी अपेक्षासे नहीं। २-एक हाथ से कुछ कम, इसको अरनि भी कहते हैं । ३-अध्याय २ सूत्र ३९-४० । ४–यहाँपर भी आयुकी अपेक्षा न लेकर विक्रियाकी अपेक्षा समझना चाहिये । ५-यह संतानक्रमके अनुरोधसे और भव्यताकी अपेक्षासे है । अन्यथा अनन्त भन्य भी ऐसे हैं, जो कि अनन्तकालमें भी मुक्त न होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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