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________________ सूत्र ४९।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १२७ कि पाँचो ही शरीरोंकी विशेषताका बोध होता है। इन उदार विकरण आहरण आदि विशिष्ट अर्थोंके होनेसे ही उक्त शरीरोंका नानात्व सिद्ध हो जाता है, क्योंकि घट पटादिकके समान सभी पदार्थोंके स्वरूपोंमें भिन्नताका रहना ही तो नानात्वका कारण हुआ करता है। स्वरूपभेदको ही लक्षणभेद भी कह सकते हैं। इस प्रकार यद्यपि लक्षणभेदके द्वारा शरीरोंका नानात्व सिद्ध हो चुका है, फिर भी शिष्यको विशिष्टरूपसे ज्ञान करानेके लिये भाष्यकार नौ प्रकारसे उन शरीरोंका नानात्व और भी सिद्ध करके बताते हैं। वे नौ प्रकार ये हैं कारण विषय स्वामी प्रयोजन प्रमाण प्रदेशसंख्या अवगाहन स्थिति और अल्पबहुत्व । क्रमसे इन्हीं विशेषोंक द्वारा शरीरोंके नानात्वको सिद्ध करते हैं। ___कारण-जिन उपादान कारणरूप पुद्गलवर्गणाओंके द्वारा इन शरीरोंकी रचना हुआ करती है, वे उत्तरोत्तर सूक्ष्म सूक्ष्मतर हैं। औदारिकशरीरके कारणरूप पुद्गल सबसे अधिक स्थूल हैं । वैक्रियशरीरके उससे सूक्ष्म हैं और उनमें विविधकरणशक्ति भी पाई जाती है । इसी प्रकार आहारक आदिके विषयमें भी समझना चाहिये । यही कारण त विशेषता है । विषय-विषयनाम क्षेत्रका है । अतएव कौनसा शरीर कितने क्षेत्रतक गमन कर सकता है, इस प्रकारकी विभिन्न शक्तिके प्रतिपादनको ही विषयभेद कहते हैं । यथा-औदारिकशरीरके धारण करनेवालोंमें जो विद्याधर हैं, वे अपने औदारिकशरीरके द्वारा नन्दीश्वर द्वीप पर्यन्त जा सकते हैं । परन्तु जो जङ्घाचारण ऋद्धिके धारण करनेवाले हैं, वे रुचक पर्वत पर्यन्त गमन कर सकते हैं। यह तिर्यक् क्षेत्रकी अपेक्षा विषय भेद है । उर्ध्व दिशामें औदारिकशरीरके द्वारा पाण्डुकवनपर्यन्त गमन हो सकता है । वैक्रियशरीर असंख्यात द्वीप समुद्र पर्यन्त जा सकता है, और आहारकशरीर केवल महाविदेहक्षेत्र तक ही गमन किया करता है। तैजस कार्मणशरीरका क्षेत्र सम्पूर्ण लोकमात्र है । ये दोनों लोकके भीतर चाहे जहाँ गमन कर सकते हैं। स्वामी-ये शरीर किसके हुआ करते हैं, इसके निरूपणको ही स्वामिभेद कहते हैं। यथा-औदारिकशरीर संसारी प्राणियोंमेंसे मनुष्य और तिर्यंचोंके ही हुआ करता है । वैक्रियशरीर देव और नारकोंके ही होता है, परन्तु किसी किसी मनुष्य और तिर्यचके भी हो सकता है, जिसको कि वैक्रियलब्धि प्राप्त हो जाया करती है । आहारकशरीर चतुर्दशपूर्वके धारण करने• वाले संयमी मनुष्यके ही हुआ करता है । तैजस और कार्मण संसारी जीवमात्रके हुआ करते हैं। __प्रयोजन-जिसका जो असाधारण कार्य है, वही उसका प्रयोजन कहा जाता है। जैसे कि औदारिकशरीरका प्रयोजन धर्माधर्मका साधन अथवा केवलज्ञानादिकी प्राप्ति होना है। १-जम्बूद्वीपसे लेकर स्वयम्भूरमणतक असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। उनमें से आठवें द्वीपका नाम नन्दीश्वर है। इसकी रचना और विस्तार राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में देखनी चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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