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________________ १२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः अप्रतिघाति हो जाता है और अप्रतिघाति से प्रतिघाति हो जाता है । ये सभी भाव वैकियशरीरमें युगपत् पाये जा सकते हैं, यह उसकी विशेषता है । यह बात अन्य शरीरोंमें नहीं पाई जा सकती । जो विक्रियामें रहे अथवा विक्रियामें उत्पन्न हो, यद्वा विक्रियामें सिद्ध किया जाय, उसको वैक्रिय कहते हैं । अथवा विक्रियाको ही वैक्रिय कहते हैं । ये सब वैक्रिय शब्द के निरुक्ति सिद्ध अर्थ हैं । फिर भी ये औदारिक आदिसे विशिष्टता दिखानेवाले लक्षणरूप अर्थ समझने चाहिये | क्योंकि शास्त्रोंमें वैक्रियशरीरका विशेष स्वरूप दिखाने के लिये इन्हीं भावका 1 अधिक खुलासा करके बताया गया है । 1 आहारक - संशयका दूर करना या अर्थविशेषका ग्रहण करना, अथवा ऋद्धिका देखना इत्यादि विशिष्ट प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये जिसका ग्रहण किया जाय, और कार्य के परा हो जानेपर जो छूट जाय, उस शरीर विशेषको आहारक कहते हैं । आहारकको ही आहार्य भी कहते हैं । इस शरीर की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही है । जिस प्रकार कोई मनुष्य किसीके यहाँ से कोई चीज माँगकर लावे, तो वह चीज काम निकलते ही वापिस कर दी जाती है । उसी प्रकार इस शरीर के विषयमें भी समझना चाहिये । आहारकशरीर के प्रकट होने के समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त - के भीतर ही कार्य समाप्त हो जाता है, और उसके पूर्ण होते ही वह शरीर वापिस आकर औदारिकशरीरमें प्रवेश कर विघटित हो जाता है । जो कार्य इस शरीरका है, वह अन्य किसी भी शरीर के द्वारा सिद्ध नहीं हो सकता । अतएव यह कार्यविशेषता ही उसका लक्षण समझना चाहिये । तैजस- इसके विषयमें पहले भी कहा जा चुका है । उष्णता है लक्षण जिसका, और जो उपयुक्त आहारको पकानेवाला है, वह प्राणिमात्रमें रहनेवाला तेज प्रसिद्ध है । इस तेजके विकार - अवस्था विशेषको ही तैजस कहते हैं । अथवा वह तेजोमय है । उस तेजका स्वभाव अथवा स्वरूप यही है, कि उससे शापानुग्रहरूप प्रयोजनकी सिद्धि हुआ करती है । इसके कार्यको भी अन्य शरीर नहीं कर सकते । अतएव यह सबसे विलक्षण है । कार्मण- ज्ञानावरणादिक अष्टविध कर्मके विकार - अवस्था विशेष - एकलोली भावके होनेको कार्मणशरीर कहते हैं। वह कर्म स्वरूप अथवा कर्ममय ही है । इसके कार्य आदिका भी पहले उल्लेख किया जा चुका है । वह कार्य भी अन्य शरीरके द्वारा नहीं हो सकता । इसलिये इसको भी सबसे विशिष्ट समझना चाहिये । ऊपर औदारिक आदि शब्दोंको अन्वर्थ बताकर उनका भिन्न भिन्न अर्थ दिखाया, जिससे १ - विक्रिया एव वैक्रियम्, अथवा विक्रियायां भवम् वैक्रियम् । २ -- देखो भगवतीसूत्र, तृतीय शतक, ५ उद्दश, सूत्र १६१, अथवा १४ शतक, ८ वाँ उद्देश, सूत्र ५३१, तथा १८ शतक, ७ वाँ उद्देश, सूत्र ६३५३कृत्यल्ल्युटो बहुलवचनात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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