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सूत्र ४९ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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जिस प्रकार ग्राह्य आदि सम्पूर्ण धर्म औदारिकके भेदोंमें पाये जाते हैं, वैसी कोई भी विशेषता वैक्रियादि किसी भी अन्य शरीरमें नहीं पाई जाती । औदारिकशरीर में मांस अस्थि स्नायु आदि भी पाये जाते हैं, जोकि अन्यत्र कहीं भी नहीं रहते । औदारिकशरीर हाथोंसे पकड़कर स्थानान्तरको ले जाया जा सकता है, या अन्यत्र जानेसे वहीं रोका जा सकता है, इन्द्रियों के द्वारा भी वह ग्रहण करनेमें आता है । फरशा आदिके द्वारा उसका छेदन और करोंत आदिके द्वारा भेदन तथा अग्नि आदिके द्वारा दहन हो सकता है । इसी प्रकार वायु वेगका निमित्त पाकर वह उड़ सकता है । इत्यादि अनेक प्रकारके उदारण - विदारण अन्य शरीरों में नहीं पाये जाते, इसलिये भी इसको औदारिक कहते हैं । क्योंकि वैक्रिय आदि शरीरों में मांस अस्थि तथा ग्राह्य आदि विशेष नहीं पाये जाते अथवा यह शरीर स्थूल होता है । क्योंकि उदार यह नाम स्थूलका भी है। स्थल उद्गत पुष्ट बृहत् और महत् ये शब्द उदारके ही पर्यायवाचक हैं। जो उदार है, उसीको औदारिक कहते हैं । फलतः- : - इसमें प्रदेश अल्प होते हैं, इसका प्रमाण अधिक माना है, शुक्र शोणित आदि वस्तुओंके द्वारा इसकी रचना हुआ करती है, तथा इसमें प्रति क्षण वृद्धिका होना पाया जाता है, और इसका उत्कृष्ट अवस्थित प्रमाण एक हजार योजनसे भी अधिक है; इत्यादि कारणोंसे ही इसको औदारिक कहते हैं । ये सब धर्म अन्य वैकिय आदि शरीरोंमें नहीं पाये जाते । क्योंकि औदारिकके अनन्तर वैकिय आदि सभी शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं यह बात पहले बताई जा चुकी है ।
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औदारिकके अनन्तर वैकियशरीरका स्वरूप बताते हैं । —विक्रिया विकार विकृति और विकरण ये शब्द एक ही अर्थके बोधक - पर्यायवाचक हैं । विशिष्ट क्रियाको विक्रिया, प्रकृत स्वरूप से अन्य स्वरूप होनेको विकार, विचित्र कृतिको विकृति और विविध रूप अथवा चेष्टाओं के करनेको विकरण कहते हैं । इस प्रकार यद्यपि ये शब्द भिन्न भिन्न अर्थके बोधक हैं, फिर भी पर्यायवाचक इस लिये हैं, कि इन सभी शब्दोंका अर्थ वैकियशरीर में घटित होता है । इसी बात को दिखाने के लिये भाष्यकार आगे स्फुट व्याख्या करते हैं । - - यह शरीर इसलिये वैक्रिय है, कि इसमें विविध क्रियाएं पाई जाती हैं, यह एक होकर अनेकरूप हो जाता है, और अनेक होकर पुनः एकरूप हो जाता है, अणुरूप होकर महान् बन जाता है, और महान् बनकर पुनः अणुरूप बन जाता है, एक आकृतिको धारण करके अनेक आकृतियों को धारण करनेवाला बन जाता है, और अनेकाकृति बनकर एक आकृतिके धारण करनेवाला भी बन जाता है, इसी प्रकार दृश्यसे अदृश्य बन जाता है, और अदृश्यसे दृश्य बन जाता है, भूमिचैरसे खेचर बन जाता है, और खेचर से भूमिचर बन जाता है, प्रतिघातिसे
१-च शब्द अथवा अर्थमें आया है । २ – उदारमेव औदारिकम् स्वार्थे ठञ्प्रत्ययविधानात् ॥ ३- भूमिपर चलनेवाले मनुष्य तिर्यच । ४ - आकाश में उड़नेवाले पक्षी आदि ।
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