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________________ १२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः समुद्घात के समय इनकी लम्बाई लोकके अन्ततक की हो सकती है । अन्य समुद्घातोंके समयका प्रमाण जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाणके मध्यका समझ लेना चाहिये । प्रश्न — उपर्युक्त शरीरोंके वाचक औदारिक वैक्रिय आदि पदोंको कैसा समझना चाहिये ? अर्थात् ये पद अन्वर्थ हैं - अर्थके अनुसार प्रयुक्त हैं, अथवा यादृच्छिक हैं ? इस प्रश्नके उत्तरमें आचार्य-भाष्यकार ये शब्द यादृच्छिक नहीं हैं, किंतु अन्वर्थ हैं, इस आशयको प्रकट करने के लिये क्रम से उनकी अर्थवत्ता को दिखाते हैं । 1 1 औदारिक शब्द के अनेक अर्थ हैं । उदार शब्दसे औदारिक बनता है, उद्गत- उत्कृष्ट है, आरा - छाया जिसकी और जो शरीरोंमें उदार - प्रधान है, उसको औदारिक कहते हैं । क्योंकि तीर्थंकर और गणधरादि महान् आत्माओंने इसीको धारण किया है, और इसीके द्वारा जगत्का उद्धार किया है। तीन लोक में तीर्थकरोंके शरीरसे अधिक उत्कृष्ट शरीर और किसीका भी नहीं होता । अथवा उत्कट - उत्कृष्ट है, आरा - मर्यादा - प्रमाण जिसका उसको औदारिक कहते हैं । क्योंकि औदारिकशरीरका अवस्थित प्रमाण एक हजार योजनसे भी कुछ अधिक माना गया है । इससे अधिक अवस्थित प्रमाण और किसी भी शरीरका नहीं होता । वैक्रियशरीरका उत्कृष्ट अवस्थित प्रमाण पाँचसौ धनुषका ही है । यद्वा उदार शब्दका अर्थ उद्गम - प्रादुर्भाव - उत्पत्ति भी होता है । जिस समय जीव अपने इस औदारिकशरीर के उपादान कारणरूप शुक्र शोणितका ग्रहण करता है, उसी समय से प्रतिक्षण वह अपने स्वरूपको न छोड़कर अपनी पर्याप्तिकी अपेक्षा रखनेवाली उत्तरोत्तर व्यवस्थाको प्राप्त हुआ करता है, ऐसा एक भी क्षण वह नहीं छोड़ता, जिसमें कि वह अवस्थान्तरको धारण न करता हो । वयःपरिणाम के अनुसार उसकी मूर्ति प्रतिसमय बढ़ती हुई नजर आती है । इसमें जरा1 वृद्धावस्था- वयोहानिकृत अवस्था विशेष और शीर्णता - सन्धि बन्धनादिकका शिथिल होना चर्ममें वलि-सरवटोंका पड़ जाना और शिथिल होकर लटकने लगना आदि अवस्था पाई जाती है, और यह शरीर ऐसे परिणामको भी प्राप्त हुआ करता है, जिसमें कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ अपने अपने विषयको ग्रहण करनेकी शक्तिसे शून्य हो जाया करती हैं 1 इसी तरहके और भी अनेक परिणमन हुआ करते हैं । इस तरहसे इसमें बार बार और अनेक उदार - उद्गम पाये जाते हैं, अतएव इसको औदारिक कहते हैं, ये सब बातें अन्य किसी भी शरीरमें नहीं पाई जातीं । अथवा उदार से जो हो उसको औदारिक कहते हैं । १ – इस विषय में टीकाकारने लिखा है कि- " ननु च शरीरप्रकरणप्रथमसूत्रे एतत् भाष्यं युक्तं स्यात्, इह तु प्रकरणान्ताभिधानेन किञ्चित् प्रयोजनं वैशेषिकमस्तीति । - उच्यते - तदेवमयं मन्यते, तदेवेदमादिसूत्रमाप्रकरणपरिसमाप्तेः प्रपञ्च्यते। अथवा प्रकरणान्ताभिधाने सत्यमेव न किञ्चित् फलमस्त्य सूत्रार्थत्वात् अतः क्षम्यतामेकमाचार्यस्येति । २ – उदारमेव औदारिकम्, इस निरुक्ति के अनुसार स्वार्थमें ठञ् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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