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________________ सूत्र ४९ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १२३ तैजसशरीर कहते हैं । उपभुक्तआहारका पचन कराना और निग्रहानुग्रह करना इसका कार्य है। ____ पाँचवाँ कार्मणशरीर है, जोकि कर्मोके विकार अथवा समूहरूप है । यह उपर्युक्त सभी शरीरोंका बीज और आधार है। क्योंकि यह सम्पूर्ण शक्तियोंको धारण करनेवाला है। समस्त संसारके प्रपंचको यदि अंकुरके समान समझा जाय, तो इस शरीरको उसका मूल बीजरूप समझना चाहिये, क्योंकि इसके आमूल नष्ट हो जानेपर जिनको मुक्त अवस्था प्राप्त हो जाती है, उनके पुनः संसारका अंकुर उत्पन्न नहीं होता । यह शरीर सभी जीवोंके रहा करता है, यह बात पहले बता चुके हैं । इसकी उत्पत्ति कर्मसे ही हुआ करती है, जिस प्रकार वीजसे वृक्ष उत्पन्न होता है, परन्तु उस बीजकी उत्पत्ति भी पूर्व वृक्षसे ही हुआ करती है। उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये। फिर भी यह संतानपरम्परा अनन्त ही न समझनी चाहिये, किसी किसीके निमित्त पाकर इसका अन्त भी हो सकता है। जैसे कि उस बीजके अग्निमें भुन जानेपर उसकी परम्परा भविष्यके लिये नष्ट हो जाती है । ज्ञानावरणादिक कर्म जो इसके बन्धमें कारण हैं, उनके मूल और उत्तर भेदोंका वर्णन आगे चलकर आठवें अध्यायमें किया जायगा। जिस प्रकार सूर्य स्वपरप्रकाशी है-वह अपने स्वरूपको और उसके सिवाय अन्य द्रव्योंको भी प्रकाशित किया करता है, उसी प्रकार कर्म भी कार्मणशरीरके उत्पन्न होनेमें कारण हैं, तथा उसके सिवाय अन्य औदारिक आदि शरीरोंके भी उत्पन्न होनेमें कारण हैं। जिस प्रकार सूर्यको प्रकाशित करनेवाला कोई अन्य पदार्थ नहीं है, उसी प्रकार कार्मणशरीरके उत्पन्न होनेमें भी कर्मके सिवाय और कोई कारण नहीं है । उपर्युक्त तैजसशरीर और इस कार्मणशरीरका साधारणतया जघन्य प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र और उत्कृष्ट प्रमाण औदारिकशरीरकी बराबर ही समझना चाहिये । परन्तु विशेष अवस्थामें-समुद्धातके समय इनका प्रमाण अधिक हो जाया करता है। केवली भगवान्के समुद्धातके समय लोककी बराबर इनका प्रमाण हो जाता है, और मारणान्तिक १ दिगम्बर सिद्धान्तके अनुसार तैजसशरीर दो प्रकारका होता है, एक साधारण दूसरा लब्धिप्रत्यय । साधारण तैजस सभी संसारी जीवोंके रहा करता है, किन्तु लब्धिप्रत्यय किसी किसीके ही होता है । अतिशयित तपके द्वारा जो ऋद्धि विशेष प्राप्त होती है, उसको लब्धि कहते हैं । लब्धिप्रत्यय तैजस भी दो प्रकारका है-एक निःसरणरूप, दूसरा अनिःसरणरूप। निःसरणरूप तैजस दो प्रकारका होता है, एक प्रशस्त दूसरा अप्रशस्त । प्रशस्ततैजस शरीरके दक्षिण भुजाके भागसे और अप्रशस्त वाम भुजाके भागसे निकलता है। जैसे कि आहारकशरीर उत्तमाङ्ग-शिरसे निकलता है, अप्रशस्त तैजस अशुभ कषायसे प्रेरित होनेपर और प्रशस्त तैजस शुभ कषायसे प्रेरित होनेपर निकलता है । परन्तु जिस प्रकार अप्रशस्त तैजस अपना कार्य करके लौटकर योगीको भस्म कर देता है. जैसे कि द्वीपायनमुनिको ( इनकी कथा हरिवंशपुराणमें है। ) किया था, उस प्रकार शुभ तैजस नहीं करता। वह वापिस आकर शरीरमें प्रवेश कर जाता है। किंतु वह भी शुभकषायसे ही होता है । अतएव क्षीणकषाय महावीर भगवान् और गोशालकके सम्बन्धकी इस विषयकी कथा भी नहीं मानी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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