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सूत्र ५२ । ]
समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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मनुष्य ही हुआ करते हैं, और कोई भी नहीं होते । जो उसी शरीरसे सिद्धि प्राप्त किया करते हैं - जिनको और कोई भी शरीर धारण करना बाकी नहीं रहा है, उस अन्तिम शरीरके धारण करनेवालोंको चरमदेह कहते हैं । तीर्थकर चक्रवर्ती और अर्धचकी इनको उत्तम पुरुष माना है | असंख्यात वर्षकी आयुके धारक मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों ही हुआ करते हैं । परन्तु इनमें से असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य देवकुरु उत्तरकुरु और अन्तरद्वीपों की अकर्मभूमियोंमें तथा कर्मभूमियों में भी आदिके तीन कालों में- सुषमसुषमा सुषमा और सुषमदुषमामें ही हुआ करते हैं । तथा हैमवत हरिवर्ष रम्यक और हैरण्यवत इन क्षेत्रोंमें भी असंख्यातवर्षकी आयुवाले मनुष्य हुआ करते हैं । क्योंकि ये भी अकर्मभूमि ही हैं । तथा असंख्यातवर्षकी आयुके धारक तिर्यच इन क्षेत्रों में भी हुआ करते हैं और इनके बाहर - मैनुष्यक्षेत्र के बाहर जितने द्वीप समुद्र हैं, उनमें भी हुआ करते हैं। इनमें से औपपातिक और असंख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोंकी आयु निरुपक्रम ही हुआ करती है । जिन वेदनारूप कारणकलापोंसे आयुका भेदन हो जाता है, उनसे इन जीवोंकी आयु रहित हुआ करती है । चरमदेहके धारक जीवोंकी आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों ही तरहकी होती है । इनके सिवाय अर्थात् औपपातिक और असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य तिर्यच तथा चरमशरीरियोंको छोड़कर बाकी जितने जवि हैं, उनकी आयु अपवर्त्य भी हुआ करती है, और अनपवर्त्य भी करती है । तथा वे सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों ही तरहकी हुआ करती हैं । जिनकी अपवर्त्य आयु हुआ करती है । उनकी आयुका विष शस्त्र कंटक अग्नि जल सर्प भोजन अजीर्ण वज्रपात बंधनविशेष - गलेमें फांसी लगा लेना आदि सिंहादिक हिंसक जीव वज्रघात आदि कारणोंसे तथा क्षुधा पिपासा शीत उष्ण आयुका तीव्र उपद्रव आजाने आदि कारणों से भी अपवर्तन हो जाता है । अधिक स्थितिवाली आदिका शीघ्र ही अन्तर्मुहूर्तके पहले ही फलोपभोग हो जाना इसको अपवर्तन कहते हैं । और जो इस अपवर्तन के निमित्त हैं, उनको उपक्रम कहते हैं ।
हुआ
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इस प्रकार आयुके अपवर्तनका स्वरूप बताया । इस विषय में कोई कोई अपवर्तनका वास्तविक अर्थ न समझकर तीन दोष उपस्थित किया करते हैं - कृतनाश अकृतागम और निष्फ
१ - सुमेरु और निषधके दक्षिणोत्तर तथा सौमनस विद्युत्प्रभके मध्यका क्षेत्र देवकुरु कहाता है । सुमेरु और नीलके उत्तर दक्षिण तथा गंधमादन और माल्यवान् के मध्य भागका क्षेत्र उत्तरकुरु कहाता है । २ --- हिमवान् पर्वतके पूर्व पश्चिम और विदिशाओं में तथा समुद्र के भीतर अन्तरद्वीप हैं । जिनमें कि अनेक आकृतियोंके धारक मनुष्य हुआ करते हैं । इन क्षेत्रोंकी लम्बाई चौड़ाई आदिका प्रमाण टीकासे जानना चाहिये । ३-४ - इन क्षेत्रोंका विशेष खुलासा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति त्रिलोकप्रज्ञप्ति या त्रिलोकसार आदि ग्रंथोंसे जानना चाहिये । संक्षिप्त वर्णन आगे तीसरे अध्यायमें करेंगे । ५ - यहाँपर आयुकर्म के ही विषय में अपवर्तनका उल्लेख किया है । परन्तु आयुके समान अन्य कर्मों का भी अपवर्तन हुआ करता है, ऐसा टीकाकर्ताका अभिप्राय है ।
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