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________________ सूत्र ४६-४७ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ११९ पर पाया जाता है, उस विग्रहगतिका काल चार समय तकका ही है । इत्यादि कारणोंसे ही कार्मणशरीरको निरुपभोग कहा है। आहारकशरीर अप्रमत्तके होता है, अतएव उसके द्वारा उपभोग नहीं हो सकता, यदि इस प्रकारकी कोई शंका करे, तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि उपभोगका और प्रमादका सहचर नियम-व्याप्ति नहीं है । उपभोगके होते हुए भी प्रमादका अभाव पाया जा सकता है । तत्त्व. स्वरूपका वेत्ता विद्वान् शब्दादिक विषयोंको विना प्रमादके-उनमें मूर्छित हुए विना-राग द्वेष रहित उपेक्षा भावसे ही जान ले यह बात असंभव नहीं है। अतएव अप्रमत्त मनि भी आहारकशरीरके द्वारा शरीर तथा इन्द्रियों के अभिव्यक्त हो जानेपर उसी प्रकारसे शब्दादिकका ग्रहणरूप उपभोग किया करता है। भाष्यम्-अत्राह एषां पञ्चानामपि शरीराणां सम्मूर्च्छनादिषु त्रिषु जन्मसु किं क्व जायत इति । अत्रोच्यते __अर्थ-ऊपर औदारिकादि पाँच प्रकारके शरीर और सम्मुर्छनादि तीन प्रकारके जन्मोंका वर्णन किया है । अतएव यह प्रश्न होता है, कि उन शरीरोंमें से कौनसा शरीर किस जन्मसे हुआ करता ? अर्थात किस किस जन्मके द्वारा कौन कौनसा शरीर प्राप्त हुआ करता है ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये ही सूत्र कहते हैं सूत्र--गर्भसम्मुर्छनजमाद्यम् ॥ ४६॥ भाष्यम्:-आद्यमितिसूत्रक्रमप्रामाण्यादौदारिकमाह । तद्गर्भे सम्मूर्छने वा जायते। अर्थ-आचार्योंने पाँच शरीरोंका पाठ सूत्र द्वारा जिस क्रमसे बताया है, उसमें सबसे पहले औदारिकका पाठ किया है। अतएव यहाँपर आद्य शब्दसे औदारिकका ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् औदारिकशरीर गर्भ अथवा सम्मूर्छनमें उत्पन्न हुआ करता है। भावार्थ-औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूर्छन जन्ममें हुआ करता है, इतना अर्थ बतानेके लिये ही यह सूत्र है । किंतु इस सत्रका अर्थ अवधारणरूप नहीं है, कि औदारिकशरीर ही गर्भ और सम्मूर्छनसे उत्पन्न होता है । क्योंकि तैजस और कार्मण भी उससे उत्पन्न होते हैं, तथा गर्भसे उत्पन्न होनेपर उत्तर कालमें लब्धिप्रत्यय वैक्रियशरीर और आहारकशरीर भी उत्पन्न होते हैं। क्रमानुसार औदारिकके अनंतर वैक्रियशरीरके जन्मको बताते हैं: सूत्र-वैक्रियमोपपातिकम् ॥४७॥ भाष्यम्-वैक्रियशरीरमौपपातिकं भवति । नारकाणां देवानां चेति । १--दिगम्बर सिद्धान्तके अनुसार अवधारण ही है । अन्यथा प्रयोग व्यर्थ ठहरता है । इस पक्षमें ऐसा ही अर्थ होता है, कि जो औदारिक है, वह गर्भ सम्मूर्छनसे ही उत्पन्न होता है, अथवा जो गर्भ सम्मूर्छनसे होता है, वह औदारिक ही है । अन्य शरीर गर्भ सम्मूर्छनसे उत्पन्न नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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