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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । द्वितीयोऽध्यायः दुःखका उपभोग नहीं हुआ करता, न कर्मका बन्ध होता है, न कर्मफलका अनुभवन होता है, और न निर्जरा ही हुआ करती है । अतएव इसको निरुपभोग कहते हैं। इसके सिवाय बाकीके औदारिकादि चारों शरीर उपभोग सहित हैं । क्योंकि उनके द्वारा सुख दुःखका उपभोग होता है, कर्मोंका बन्ध होता है, उनके फलका अनुभवन होता है, और उनकी निर्जरा भी हुआ करती है । अतएव औदारिकादि चारों शरीरोंको सोपभोग समझना चाहिये । भावार्थ-यहाँपर कार्मणशरीरके द्वारा उपभोगका जो निषेध किया है, सो उपभोग सामान्यका नहीं, किंत उपभोग विशेषका किया है। उपभोगके साधन हाथ पैर इन्द्रियाँ आदि हैं सो वे कार्मणशरीरमें नहीं पाये जाते । जिस प्रकार औदारिकशरीरके द्वारा जीव मनोयोगके द्वारा विचारपर्वक हिंसादि अशम और प्राणिरक्षणादिक शुभकर्म कर सकता है, या किया करता है, अथवा गमनागमनादि क्रिया किया करता है, यद्वा श्रोत्रादिक इन्द्रियोंके द्वारा शब्दादिकको सुन सकता है, तथा और भी इष्ट या अनिष्ट विषयोंका सेवन कर सकता है, उस प्रकारका कोई भी कार्य कार्मणशरीरके द्वारा नहीं हो सकता । इसी प्रकार वैक्रिय आहारक और तैजसशरीरके विषयमें समझना चाहिये। क्योंकि औदारिकके समान ये भी तीनों सोपभोग ही हैं। वैक्रियशरीरके द्वारा भी आङ्गोपाङ्ग तथा निर्वृत्ति और उपकरणरूप इन्द्रियोंके स्फुट रहनेसे इष्टानिष्ट विषयोंका सेवन होता ही है, और आहारकशरीरके द्वारा भी अप्रमत्त मुनिका प्रयोजन सिद्ध होता ही है, तथा तैजसशरीरके द्वारा भी निग्रहानुग्रह यद्वा उपभुक्त आहारका पचन और उसके द्वारा सुरवादिका अनुभव होता ही है, इसी प्रकार बुद्धिपूर्वक किये गये कार्योंके द्वारा जैसा कर्मका बन्ध तथा आङ्गोपाङ्ग और इन्द्रियों के द्वारा जैसा कर्मके फलका अनुभवन एवं तपस्या आदिके द्वारा जिस प्रकार कोंकी निर्जरा औदारिकादि शरीरोंसे हुआ करती है, उस प्रकारके ये कोई भी कार्य कार्मणशरीरसे नहीं हो सकते । इसी लिये इसको निरुपभोग कहा है। अन्यथा विग्रहगतिमें कर्मयोग और उसके द्वारा कर्मबन्धका होना भी माना ही है । तात्पर्य इतना ही है, कि कार्मणशरीरको निरुपभोग कहनेका अभिप्राय उपभोग सामान्यके निषेध करनेका नहीं उपभोग विशेषके निषेध करनेका ही है । अभिव्यक्त सुख दुःख और कर्मानुबन्ध अनुभव तथा निर्जरा कार्मणशरीरके द्वारा नहीं हो सकते, यही उसकी निरुपभोगता है। इसके सिवाय एक बात यह भी है, कि कार्मणशरीर कोंके समूहरूप है, अतएव वह उपभोग्य तो हो सकता है, परन्त उपभोनक नहीं हो सकता । दूसरी बात यह कि छद्मस्थ जीवोंका उपभोग असंख्यात समयसे कममें नहीं हो सकता, परन्तु कार्मणशरीरका योग जहाँ. १-किन्तु कर्मबन्धको उपभोग नहीं कहते ! इन्द्रियों के द्वारा विषयोंके अनुभव करनेको ही उपभोग माना है। यथा-इन्द्रियनिमित्ता हि शब्दाद्युपलब्धिरुपभोगः ॥–श्रीविद्यानन्दि-श्लोकवार्तिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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