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सूत्र ४४-४५ । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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औदारिक ये तीन पाये जायगे । ३ - अथवा तैजस कार्मण वैक्रिय ये तीन पाये जायगे । ४ - यदि चार शरीर एक साथ किसी जीवके पाये जायगे, तो या तो तैजस कार्मण औदारिक वैक्रिय पाये जायगे ५ - अथवा तैजस कार्मण औदारिक आहारक ये चार पाये जायगे ।
तैजसशरीर के प्रत्याख्यान पक्षमें भी पाँच विकल्प होते हैं; परन्तु इस पक्ष में लब्धिकी अपेक्षासे तैजसशरीरको माना भी है । इसलिये इस पक्षमें दो विकल्प बढ़ जाते हैं । अतएव कुल मिलकर इस पक्षमें सात विकल्प होते हैं । उन्हींको यहाँपर क्रमसे दिखाते हैं
१ - या तो किसी जीवके एक समय में एक कार्मण ही पाया जायगा । २ - यदि दो शरीर एक साथ होंगे, तो या तो कार्मण औदारिक होंगे । ३ - अथवा कार्मण वैकिय ये दो होंगे । ४ - यदि किसी जीव के एक साथ तीन शरीर होंगे, तो या तो कार्मण औदारिक वैक्रिय होंगे। ५ - अथवा कार्मण औदारिक आहारक ये तीन होंगे । ६ - लब्धिप्रत्यय तैजसशरीरकी अपेक्षा से किसी जीवके एकसाथ यदि शरीर पाये जायगे तो या तो कर्मण तैजस औदारिक वैकिय ये चार पाये जायगे | ७- अथवा कार्मण तैजस औदारिक आहारक ये चार पाये जायगे ।
कहने का तात्पर्य यही है, कि किसी भी एक जीवके एक कालमें कभी भी पाँचो शरीर एक साथ नहीं पाये जा सकते, और न वैक्रिय तथा आहारक ये दो शरीर युगपत् किसी जीवके पाये जा सकते हैं। ये दोनों शरीर साथ साथ सम्भव क्यों नहीं है, इसका कारण इनके स्वामिओंकी विशेषता है । इस विशेषताका स्वरूप आगे चलकर बताया जायगा ।
इस प्रकार औदारिक आदि पाँचो शरीरों का स्वरूप और उनमेंसे युगपत एक जीवके कितने शरीरों की सम्भवता है, इस बातका वर्णन किया । परन्तु इन शरीरों का प्रयोजन क्या है, सो नहीं मालूम हुआ । अतएव इस बातको बतानेके लिये अन्तिम शरीर के विषय में कहते हैं कि :सूत्र - निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४५ ॥
भाष्यम् - अन्त्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्कार्मणमाह । तन्निरुपभोगम् । न सुखदुःखे तेनोपभुज्येते न तेन कर्म बध्यते न वेद्यते नापि निर्जीर्यत इत्यर्थः । शेषाणि तु लोपभोगानि । यस्मात् सुखदुःखे तैरुपभुज्येते कर्म बध्यते वेद्यते निर्जीर्यते च तस्मात्सोपभोगानीति ॥ अर्थ -- अन्त्य शब्दसे कार्मणशरीरका ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि “ औदारिक वैक्रियाहारक ” इत्यादि सूत्रमें पाँच शरीरोंका जो पाठ किया है, वहाँपर सबके अन्तमें कार्मण शरीरका ही पाठ है । यह कार्मणशरीर उपभोग रहित होता है । क्योंकि इसके द्वारा सुख
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१ - उस चतुर्दश पूर्वके धारकके यह पाया जाता है, जिसके कि तैजसलब्धि उत्पन्न नहीं हुई है । २ - क्योंकि आहारकलब्धि और वैक्रियलब्धिकी उत्पत्ति परस्पर में विरुद्ध होनेसे युगपत् नहीं हो सकती । ३ - अध्याय २ सूत्र ४८ और ४९ ॥ लब्धिप्रत्यय वैकिय तो मनुष्य और तिर्यञ्च दोनोंके होता है, और आहारक चतुर्दश पूर्वधर संयत अप्रमत्त होता है, इत्यादि विशेषताका वर्णन करेंगे ।
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