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________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्वितीयोऽध्यायः अर्थ--वैक्रियशरीर उपपातजन्ममें हुआ करता है । अतएव वह देव और नारकियोंके ही हुआ करता है । न कि अन्य जीवोंके । भावार्थ:-उपपातजन्मके द्वारा प्राप्त होनेवाला वैक्रियशरीर दो प्रकारका हुआ करता है-एक भवधारक दूसरा उत्तरवैक्रिय । दोनों शरीरोंका जघन्य प्रमाण अङ्गलके असंख्यातवें भागमात्र है, परन्तु उत्कृष्ट प्रमाण भवधारकका पाँचसौ धनुष और उत्तरवैक्रियका एक लक्ष योजन प्रमाण है। वैक्रियशरीर औपपातिकके सिवाय अन्य प्रकारका भी हुआ करता है, इस विशेष बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र-लब्धिप्रत्ययं च ॥ ४८॥ भाष्यम्-लब्धिप्रत्ययशरीरं च वैक्रियं भवति; तिर्यग्योनीनां मनुष्याणां चेति । अर्थ-वैक्रियशरीर लब्धिप्रत्यय भी हुआ करता है, और इस प्रकारका शरीर तिर्यचोंके अथवा मनुष्योंके हुआ करता है । भावार्थ-यहाँपर च शब्दसे भाष्यकारने उत्कृष्ट वैक्रियका अभिप्राय दिखाया है। प्रत्यय शब्दका अर्थ कारण है । अतएव इसको लब्धिकारणक कहनेका अभिप्राय यह है, कि औदारिकशरीरवालोंके जो वैक्रियशरीर पाया जाता है, वह जन्मजन्य नहीं होता लब्धिकारणक होता है । इसीलिये उसके विशिष्ट स्वामियोंका उल्लेख किया है कि, वह तिर्यंचे और मनुष्योंके हुआ करता है। __ क्रमानुसार आहारकशरीरका लक्षण और उसके स्वामीको बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र-शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यै ॥४९॥ भाष्यम्-शुभमिति शुभद्रव्योपचितं शुभपरिणामं चेत्यर्थः । विशुद्धमिति विशुद्धद्रव्योपचितमसावयं चेत्यर्थः। अव्याघातीति आहारकं शरीरं न व्याहन्ति न व्याहन्यते चेत्यर्थः । तच्चतुर्दशपूर्वधर एव कस्मिंश्चिदर्थे कृछ्रेऽत्यन्तसूक्ष्मे सन्देहमापन्नो निश्चयाधिग १-मनुष्य और तिर्यंचोंके भी वैक्रियशरीर होता है, परन्तु वह लब्धि प्रत्यय होता है, औदारिकशरीरमें ही तप आदिके निमत्तसे शक्ति विशेष उत्पन्न हो जाती है। औपपातिक वैक्रिय वक्रिय वर्गणाओंसे बनता है। वह देव नारकोंके ही होता है । २-" वायोश्च वैक्रियं लब्धिप्रत्ययमेव, शेषतिर्यग्योनिजानांमध्ये, नान्यस्येति” । टीकाकारके इन वाक्योंसे मालूम होता है, कि तिर्यंचोंमें केवल वायुकायके ही वैक्रियशरीर होता है । किंतु दिगम्बर सिद्धान्तमें तैजस काय आदिके भी माना है । ( देखो गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २३२) ३-भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवालोंके भी विक्रिया होती है, और कर्मभूमिमें चक्रवर्ती आदि गृहस्थोंके भी होती है, जिससे कि एक कम ९६ हजार पुतले निकला करते हैं । क्वचित विष्णुकुमार सरीखे मुनियोंके भी हुआ करती है। ४-चतुर्दशपूर्वधर एवेति क्वचित्पाठः। केचित्त “अकृल्नश्रुतस्पर्द्धिमतः इति अधिकं पठन्ति तत्तु न टीकाकाराभिमतम् । दिगम्बरमत नु प्रमत्तसंयतस्यैवेति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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