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________________ सूत्र ४२-४३ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ११५ अर्थ-तैजस और कार्मण ये दो शरीर सभी संसारी जीवोंके रहा करते हैं। परन्तु कोई कोई आचार्य इस सूत्रको नयवादापेक्ष-नयवादकी अपेक्षासे कहा गया बताते हैं। उनका कहना है, कि एक कार्मणशरीर ही अनादिसम्बन्ध है । केवल उसीके साथ जीवका अनादिसे सम्बन्ध है, न कि तैजसशरीरके साथ । तैजसशरीर तो लब्धिकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ कतरा है, और वह तैजसलब्धि भी सभी जीवोंके नहीं हुआ करती, किंतु किसी किसीके ही होती है । जैसा कि ऊपर शुभ और अशुभ तैजसके विषयमें लिखा गया है । शरीरके बाहर तैजस पुतला जिसके निमित्तसे निकला करता है, वही तैनसलब्धि है । कोपके आवेशसे शाप देनेके लिये उष्ण प्रभावाला अग्निपुञ्जके समान स्फुलिङ्गोंसे युक्त जो पुतला निकलता है, वह अशुभ है, जैसा कि गोशालके निकला था । यह पुतला जिसके ऊपर छोड़ा जाता है, उसको तत्काल भस्म कर देता है। दूसरा शुभ तैजस है, जो कि किसीपर अनुकम्पा करनेके लिये मनकी प्रसन्नताके आवेशसे निकला करता है । इसकी किरणें शीतल हुआ करती हैं । जैसे कि मणिओंकी अथवा अन्धकारके दूर करनेवाले ज्वलन-तेजोविशेष की यद्वा चन्द्रमा आदिक ज्योतिष्क देवोंके विमानकी हुआ करती हैं । यह दैदीप्यमान प्रभासमूहकी छायाका उत्पादक है। यह पुतला जिसपर अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे निकलता है, उसको इसके निमित्तसे संताप दूर होकर अत्यन्त सुखका अनुभव हुआ करता है। जैसे कि भगवान् महावीरने इस शीत तेजो निसर्गके द्वारा उसी गोशालकपर जिसका कि शरीर उष्ण लेश्याके द्वारा व्याप्त हो रहा था, अनुग्रह किया था। ___ इस तरह कोई कोई तैजस शरीरको लब्धिप्रत्यय ही मानते हैं, और इसी लिये उसको नित्यसम्बन्ध नहीं मानते । इस विषयमें भी दो अभिप्राय प्रकट समझने चाहिये,-एक तो यह कि ऐसा आचार्योंका अभिप्राय नहीं है, क्योंकि यह बात दूसरेका अभिप्राय करके उपस्थित की गई है । दूसरा किसी किसीका यह कहना है, कि यह आचार्योंका है। अभिमत है। भावार्थ-इस विषयमें किसी किसीका तो कहना है, कि तैजसशरीर नित्यसम्बन्ध नहीं है, वह लब्धिप्रत्यय होनेसे किसी किसीके ही होता है, सबके नहीं होता । उपभुक्तआहारको पचानेकी शक्ति कार्मणशरीरमें है, और उसीके द्वारा वह कार्य हो जाता है । किन्तु अन्य आचायाँका कहना है, कि ग्रन्थकारका यह आशय नहीं है। कार्मणकी तरह तैजस भी नित्यसम्बन्ध है, और वह भी सभीके रहता है, भाष्यकारको भी यही बात इष्ट है । इन दोनों शरीरोंका सम्बन्ध अनादि है, वह सभी जीवोंके युगपत् पाया जाता है। इसी तरह अन्य शरीर भी एक जीवके एक ही कालमें पाये जाते हैं या नहीं ? यदि पाये जाते हैं, तो उक्त पाँच शरीरोंमेसे कितने शरीर युगपत् एक जीवके रह सकते हैं ? इसी बातको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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