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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ द्वितीयोऽध्यायः
सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त हैं । लोकके अन्तमें उनका अभाव है। अवएव सहकारी निमित्तके न रहनेसे लोकके अन्तमें तैजस और कार्मणकी भी गति नहीं हो सकती।
औदारिक आदि तीन शरीरोंका सम्बन्ध कभी पाया जाता है, और कभी नहीं पाया जाता, ऐसा ही इन दो शरीरोंके विषयमें भी है क्या ? इस शंकाको दूर करनेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र-अनादिसम्बन्धे च ॥ ४२ ॥ भाष्यम्-ताभ्यां तैजसकार्मणाभ्यामनादिसम्बन्धो जीवस्येत्यनादिसम्बन्ध इति। ___ अर्थ-उक्त तैजस और कार्मण इन दो शरीरोंके साथ जीवका अनादिकालसे सम्बन्ध है । अतएव इन दो शरीरोंको अनादिसम्बन्ध कहा जाता है ।
भावार्थ-जबतक संसार है, तबतक जीवके साथ इन दो शरीरोंका सम्बन्ध रहता ही है। संसारी जीव अनादिसे ही संसारी है, अतएव तैजस और कार्मणशरीरका सम्बन्ध भी अनादि है । यह अनादिता द्रव्यास्तिकनयकी अपेक्षासे समझनी चाहिये न कि पर्यायास्तिकनयकी अपेक्षासे । क्योंकि प्रवाहरूपसे इन दोनों ही शरीरोंके साथ जीवका अनादि कालसे सम्बन्ध पाया जाता है, किन्तु पर्यायास्तिकनयसे इनका सम्बन्ध सादि है। क्योंकि मिथ्यादर्शनादिक कारणोंके द्वारा प्रतिक्षण इनका बन्ध हुआ करता है, और इनकी स्थिति आदिक भी निश्चित हैं-नियत हैं । परन्तु इनके बन्धका प्रारम्भ अमुक समयसे हुआ है, यह बात नहीं है । जैसे खानके भीतर सुवर्ण पाषाणका मलके साथ स्वतः स्वभावसे ही सम्बन्ध है और वह अनादि है, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । अतएव तैजस और कार्मणका जीवके साथ अनादिसम्बन्ध भी है, और सादिसम्बन्ध भी है, इस बातको दिखानेके लिये ही सूत्रमें च शब्दका पाठ किया है।
___ यद्यपि इन दोनों शरीरोंका सम्बन्ध अनादि है, परन्तु ये सभी संसारी जीवोंके पाये जाते हैं या किसी किसी के ? इसका उत्तर देनेके लिये सूत्र कहते हैं---
सूत्र--सर्वस्य ॥ ४३ ।। भाष्यम्-सर्वस्य चैते तैजसकार्मणे शरीरे संसारिणो जीवस्य भवतः । एक त्वाचार्या नयवादापेक्षं व्याचक्षते । कार्मणमेवैकमनादिसम्बन्धम् । तेनैवैकेन जीवस्यानादिः सम्बन्धो भवतीति। तैजसं तु लब्ध्यपेक्षं भवति । सा च तैजसलब्धिर्न सर्वस्य, कस्यचिदेव भवति । कोधिप्रसादनिमित्तौ शापानुग्रहौ प्रति तेजोनिसर्गशीतरश्मिनिसर्गकरं तथा भ्राजिष्णुप्रभासमुदयच्छायानिर्वर्तक तैजसं शरीरेषु मणिज्वलनज्योतिष्कविमानवदिति ।
१-औदारिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति ३ पल्य, वैक्रियिकशरीरकी ३३ तेतीस सागर, आहारककी अन्तमुहूर्त, तेजसकी छयासठ सागर, कार्मणशरीरकी सामान्यसे ७० कोडाकोडी सागर प्रमाण है । इसका विशेष वर्णन गोम्मटसार जीवकांडमें देखना चाहिये । २-“पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसम्बन्धो । कणयोवले मलं वा ताणस्थित्तं संयंसिद्धं ॥ २॥ ( गो० कर्मकांड.) ३-कहीं कहींपर क्रोध शब्दकी जगह कोप शब्दका पाठ है । परन्तु टीकाकारने क्रोध शब्द ही रक्खा है । ४--निर्वतकं सशरीरेषु इत्येव पाठोऽन्यत्र ।
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