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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः स्वामियोंको बतानेके लिये ऊपर जो तीन सूत्र किये हैं, उनका अर्थ अवधारणरूप ही होना चाहिये और इकतरफा अवधारण करनेसे व्यभिचार उपस्थित होता है, अतएव यहाँपर उभयतः अवधारण-नियम बताया गया है।
पूर्वोक्त योनियोंमें उपर्युक्त जन्मोंके धारण करनेवाले जीवोंके शरीर कितने प्रकारके हैं और उनके क्या क्या लक्षण हैं, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैंसूत्र-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकाणानि शरीराणि ॥ ३७॥ __भाष्यम्-औदारिकं वैक्रियं आहारकं तैजसं कार्मणमित्येतानि पञ्च शरीराणि संसारिणां जीवानां भवन्ति ॥ ___ अर्थ-औदारिक वैक्रिय आहारक तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर संसारी जीवोंके
हुआ करते हैं।
भावार्थ-यह सूत्र ऐसा नियम बताता है, कि संसारी जीवोंके ये पाँच ही शरीर हुआ करते हैं । परन्तु इसका अर्थ यह न समझना चाहिये, कि जो संसारातीत हैं उनके पाँचसे अधिक भी होते हैं । क्योंकि यह संसारी जीवोंका ही प्रकरण है, अतएव शरीरका सम्बन्ध संसारी जीवोंके ही होता है । जो संसारातीतमुक्त हैं, वे शरीर और कर्म दोनोंसे ही सर्वथा रहित हैं, अतएव उनके विषयमें शरीरका विचार करना ही निरर्थक है।
संसारी जीवोंके भी शरीर पाँच ही हैं, न कि कम ज्यादह । यद्यपि इस सूत्रमें शरीर शब्दकी जगह काय शब्दका पाठ करनेसे लाघव हो सकता था, परन्तु वैसा नहीं किया है, इससे आचार्यका अभिप्राय अर्थ विशेषको व्यक्त करनेका प्रकट होता है । वह यह कि-यहाँपर शरीर शब्दको अन्वर्थ समझना चाहिये, केवल काय शब्दके अर्थका बोधक ही नहीं । जो विशरणशील है-जीर्ण होकर बिखर जाता है, उसको शरीर कहते हैं । औदारिकादिक पाँचो ही में यह स्वभाव पाया जाता है, अतएव इनको शरीर कहते हैं । यथायोग्य समय पाकर ये आत्मासे सम्बन्ध छोड़कर पौगलिक वर्गणारूपमें इतस्ततः बिखर जाते हैं।
___ इन शरीरोंकी रचना अन्तरङ्गमें पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्मके उदयकी अपेक्षासे हुआ करती है । इसके पाँच भेद हैं-औदारिक वैक्रिय आहारक तैजस और कार्मण । औदारिक शरीरनामकर्मका उदय होनेपर जो उदार स्थूल और असार पुद्गल द्रव्यके द्वारा बनता है, उसको औदारिक कहते हैं । वैक्रियशरीरनामकर्मका उदय होनेपर जो विक्रिया-विविधकर
१-किसी किसीने इस सूत्रका योग विभाग कर दिया है । वे इस सूत्रके " शरीराणि" इस वाक्यको पृथक् -सूत्र मानते हैं । उनका अभिप्राय यह है, कि इस विषयमें आगे विशेष वर्णन करना है, अतएव यह अधिकार सूत्र पृथक ही है । किंतु सिद्धसेनगणी आदिको यह अभिप्राय इष्ट नहीं है ।
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