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________________ सूत्र ३७-३८ । ] सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । णता - बहुरूपता - अनेकस्वरूपकरणता और अणिमादिक अष्ट ऋद्धि तथा गुणोंसे युक्त पुद्गलद्रव्यवर्गणाओं के द्वारा बनता है, उसको वैक्रिय कहते हैं । आहारकशरीरनामकर्मका उदय होनेपर विशिष्ट प्रयोजनके सिद्ध करनेमें समर्थ शुभतर विशुद्ध पुद्गलद्रव्य वर्गणाओंके द्वारा जो बनता है, और जिसकी कि स्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है, उसको आहारक कहते हैं । तेजस् शब्दका अर्थ अग्नि है । तैजसशरीरनामकर्मका उदय होनेपर तेजो गुणयुक्त पुद्गल द्रव्यaणाओं द्वारा जो बनता है, उसको तैजसशरीर कहते हैं । यह दो प्रकारका होता हैलब्धिरूप और अलब्धिरूप । लब्धिरूप तैजस भी दो प्रकारका होता है- शुभ और अशुभ | गोशालकके समान जिसको तैजस लब्धि प्राप्त है, वह रोष - क्रोध आदिके वशीभूत होकर अपने शरीर के बाहर तैजस पुतला निकालता है, जो कि उष्ण गुणयुक्त होनेसे दूसरेका दाह करने में समर्थ हुआ करता है । इसको अशुभ तैजस कहते हैं, जो कि शाप देने आदि अशुभ क्रिया करने में समर्थ होता है । प्रसन्न होनेपर वही तैजस शरीरका पुतला शीत गुणयुक्त निकला करता है । जो कि दूसरेका अनुग्रह करनेमें समर्थ हुआ करता है । इसको शुभ तैजस कहते हैं । अलब्धिरूप तैजस शरीर पाचनशक्ति युक्त होता है । वह उपभुक्त आहारके पचाने में समर्थ होता है | अष्टविध कर्मोंके समूहको कोर्मणशरीर कहते हैं । 1 इन पाँच शरीरोंकी परस्परमें विशेषता अनेक कारणों से बताई है, जो कि ग्रन्थान्तरों में देखनी चाहिये । यहाँपर औदारिकशरीरको स्थूल बताया है, इससे शेष शरीर सूक्ष्म हैं यह बात सिद्ध होती है । परन्तु वह सूक्ष्मता कैसी है, शेष चारों ही शरीरोंकी सूक्ष्मता सदृश है, अथवा विसदृश इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं — सूत्र - तेषीं परं परं सूक्ष्मम् ॥ १११ ३८ ॥ भाष्यम् -- तेषामौदारिकादिशरीराणां परं परं सूक्ष्म वेदितव्यम् । तद्यथा - औदारिकाद्वै क्रियं सूक्ष्मम् । वैक्रियादाहारकम् । आहारकात्तैजसम् । तैजसात्कार्मणमिति ॥ Jain Education International अर्थ — उपर्युक्त औदारिकादिक पाँच शरीरोंमेंसे पूर्व पूत्र शरीरकी अपेक्षा उत्तरोत्तर शरीरोंको सूक्ष्म सूक्ष्म समझना चाहिये । अर्थात् औदारिक शरीरसे वैक्रियशरीर सूक्ष्म होता है, १ – कोई कोई आठ कर्मों से भिन्न ही कार्मणशरीरको मानते है । परन्तु यह बात नहीं है इसकी निरुक्ति इसी प्रकार से है कि " कर्मभिर्निष्पन्नं कर्मसुभवं कर्मैव वा कार्मणमिति । " २ - जैसे कि राजवार्तिक अध्याय २ सूत्र २४९ की वार्तिकमें कहा है कि - " संज्ञास्वालक्षण्यस्वकारणस्वामित्वसामर्थ्यप्रमाणक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरसंख्याप्रदेशभावाल्प"बहुत्वादिभिर्विशेषोऽवसेयः” अर्थात् संज्ञा लक्षण कारण स्वामित्व सामर्थ्य प्रमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर संख्या प्रदेश भाव और अल्पबहुत्व इन १४ हेतुओंसे और इनके सिवाय अन्य भी हेतुओंसे जैसे कि प्रयोजन अथवा पूज्यस्व अपूज्यत्व आदिकी अपेक्षासे भी इन शरीरोंकी परस्परकी विशेषता समझ लेनी चाहिये । इन चौदह बातोंका खुलासा जवार्त्तिक्रमें ही देखना चाहिये, जिनके कि द्वारा उक्त और अनुक्त अर्थका बोध होता है । ३- तेषामिति क्वचिन्नास्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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