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________________ सूत्र ३३ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १०७ उनके नाम क्रमसे इस प्रकार हैं-सचित्ता, अचित्ता, सचित्ताचित्ता, शीता, उष्णा, शीतोष्णा, संवृता, विवृता, संवृतविवृता। __इन नौ प्रकारकी योनिओंमेंसे देवगति तथा नरकगतिमें जन्म धारण करनेवाले जीवोंकी योनि सचित्त अचित्त और उसके मिश्रके त्रिकमेंसे अचित्त ही होती है। गर्भ-जन्मवालोंकी मिश्रसचित्ताचित्त होती है । तथा बाकीके जीवोंकी तीनों ही प्रकारकी-सचित्ता, अचित्ता, और सचिताचित्ता होती है । शीत उष्ण और उसके मिश्ररूप योनित्रय में से गर्भ-जन्मवाले तथा देवगतिके जीवोंके मिश्ररूप-शीतोष्णा योनि होती है, और तेजःकायवाले जीवोंके उष्ण योनि होती है, किन्तु बाकीके जीवोंके तीनों ही प्रकारकी योनि हुआ करती है । संवृत विवृत और उसके मिश्ररूप इन तीनोंसे नरकगतिके तथा एकेन्द्रिय जीवोंके और देवोंके संवृत योनि ही हुआ करती है । गर्भ-जन्मवालोंके मिश्र-संवृतविवृत, किंतु बाकीके जीवोंके तीनों ही-संवृत. विवृत और संवृतविवृत योनि हुआ करती हैं। भावार्थ-संसारी जीव पूर्व शरीरका नाश होनेपर उत्तर शरीरके योग्य पुद्गल द्रव्यको जिस स्थानपर पहुँचकर ग्रहण कर कार्मणशरीरके साथ मिश्रित करता है, उस स्थानको योनि कहते हैं। वह मूलमें सचित्तादिकके भेदसे नौ प्रकारका है, किंतु उसके उत्तर भेद ८४ लाख हैं । जोकि इस प्रकार हैं-नित्यनिगोद इतरनिगोद पृथिवीकाय जलकाय आग्निकायः वायुकाय इन छहमेंसे प्रत्येकका सात सात लाख, वनस्पतिकायके १० लाख, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय इनमें प्रत्येकके दो दो लाख, शेष तिर्यञ्च देव और नारकी इनमें प्रत्येक के चार चार लाख, तथा मनुष्योंके १४ लाखे । नौ प्रकारकी योनियोंमेंसे किस किस जन्मवालेके कौन कौनसी योनि होती है, सो ऊपर बताया जा चुका है । जो जीवके प्रदेशोंसे युक्त हो उसको सचित्त और जो जीवके प्रदेशोंसे रहित हो, उसको आचित्त तथा जिसका कुछ भाग जीवके प्रदेशोंसे युक्त हो और कछ भाग उनसे रहित हो, उसको मिश्र-सचित्ताचित्त योनि कहते हैं। शीत उष्ण और उसके मिश्रका अर्थ स्पष्ट है। संवृत शब्दका अर्थ प्रच्छन्न-अप्रकट है, इससे विपरीत-प्रकट योनिको विवृत कहते हैं। तथा जिसका कुछ भाग प्रकट और कुछ भाग अप्रकट हो उसको मिश्र-संवृतविवृत समझना चाहिये । ऊपर गर्भ-जन्मवालोंकी सचित्ताचित्तरूप मिश्र योनि बताई है, वह इस प्रकार है, कि जो पुद्गल योनिसे सम्बद्ध हैं, वे सचित्त हैं और जो तत्स्वरूप परिणत नहीं हुए हैं, वे अचित्त हैं। ये १-णिच्चिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चोद्दस मणुए सदसहस्सा ॥ ८९ ॥ -गो० जी० । २-इस विषयमें किसी किसीका कहना है, कि माताका रज सचित्त है, और पिताका वीर्य अचित्त, अतएव दोनोंके संयोगसे गर्भ-जन्म वालोंकी मिश्र-सचित्ताचित्त योनि होती है । तथा किसी किसीका कहना है, कि शुक्रशोणित दोनों ही अचित्त हैं, किन्तु योनिके प्रदेश सचित्त हैं, अतएव उनके संयोगसे मिश्र योनि हुआ करती है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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