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________________ १०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः माता पिताका संयोग होनेपर उनके रज वीर्यके संयोगसे जो शरीर बनता है, उसकों गर्भ-जन्म कहते हैं। जैसे कि पशु पक्षियोंका या मनुष्योंका हुआ करता है । देव और नारकियोंके शरीर-परिणमनको उपपात-जन्म कहते हैं । सम्मर्छन और उपपात-जन्ममें नियत और अनियत स्थानकी अपेक्षा अंतर समझना चाहिये । सम्मूर्छननन्मका स्थान और आकार नियत नहीं हैं, किंतु देव नारकियोंके उपपातजन्मके स्थान और आकार नियत हैं । तथा सम्मूर्छन और गर्भ-जन्मके द्वारा उत्पन्न हुआ शरीर स्थूल हुआ करता है, किंतु उपपातजन्मके द्वारा प्राप्त हुआ शरीर सूक्ष्म होता है। उपर्युक्त तीन प्रकारके जन्मोंमेंसे सम्मर्छनजन्मके द्वारा प्राप्त शरीर स्थूल भी होता है, और उसके स्वामी भी सबसे अधिक हैं, अतएव सूत्रकारने पहले सम्मर्छन शब्दका ही पाठ किया है। उसके बाद गर्भ शब्दका पाठ इसलिये किया है, कि इसकी भी स्थूलता सम्मूर्छनके ही समान है। उपपात-जन्मका स्वभाव इसके प्रतिकूल-सूक्ष्म है, अतएव उसका अन्तमें ग्रहण किया है । तथा औदारिकशरीरके स्वामी मनुष्य और तिर्यंचोंकी अपेक्षा उपपातजन्मके. स्वामी देव नारकियोंका स्वभाव भी विरुद्ध है। इस प्रकार तीन जन्मोंका स्वरूप तो बताया, परन्तु अभीतक इनके स्थानका निर्देश नहीं किया, कि ये कहाँ होते हैं । अतएव कहाँपर तो जीव सम्मूर्छनजन्मको और कहाँपर गर्भजन्मको तथा कहाँपर रहनेवाले या उत्पन्न होकर उपपात-जन्मको धारण करते हैं, यह बतानेके लिये ही सूत्र कहते हैं । - सूत्र-सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः॥३३॥ भाष्यम्-संसारे जीवानामस्य त्रिविधस्य जन्मन एताः सचित्तादयः सप्रतिपक्षा मिश्राशैकशो योनयो भवन्ति । तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता, सचित्ताचित्ता, शीता, उष्णा, शीतोष्णा, संवृता, विवृता, संवृतविवृता, इति । तत्र नारकदेवानामचित्ता योनिः गर्भजन्मनां मिश्रा । त्रिविधाऽन्येषाम् । गर्भजन्मनां देवानां च शीतोष्णा। तेजः कायस्योष्णा। त्रिविधाऽन्येषाम् । नारकैकेन्द्रियदेवानां संवृता। गर्भजन्मनां मिश्रा। विवृताऽन्येषामिति । अर्थ--अष्टविध कर्मरूप संसारके बंधनमें पड़े हुए जीवोंके जन्म ऊपर तीन प्रकारके बताये हैं-सम्मर्छन गर्भ और उपपात । इनकी योनि-आधार स्थान सचित्तादिक तीन और इनके प्रतिपक्षी-उल्टे अचित्तादिक तीन तथा एक एकके मिश्ररूप तीन इस तरह कुल नौ हैं। १-"अपरे वर्णयन्ति-सम्मूर्छनमेवैकं सामान्यतो जन्म, तद्धि गर्भोपपाताभ्यां विशिष्यत इति" अर्थात् किसी किसीका कहना है, कि सामान्यतया एक सम्मूर्छन ही जन्म है, उसीके गर्भ और उपपात ये दो विशेषण हैं। परन्तु ग्रन्थकारको यह बात इष्ट नहीं, क्योंकि ऐसा माननेसे जन्मोंकी त्रिविधता नष्ट हो जाती है । और कीट पतङ्ग वृक्षादिके शरीरको भी गर्भजन्म या उपपातजन्म ही कहना पड़ेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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