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________________ सूत्र ३२ ।] समाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । समझना चाहिये । यह जीव अपने परिणामोंसे जैसे भी कर्मोंका संग्रह करके उनको आत्मसात् कर लेता है, वे कर्म यथा समय उदयमें आकर अपनी अपनी शक्तिके अनुसार फल दिया करते हैं, और वह फल उस जीवको भोगना पड़ता है । उस कर्मके निमित्तसे ही संसारी जीवका जन्म मरण हुआ करता है । सिद्धजीव कर्मोंसे सर्वथा रहित हैं, अतएव उनका जन्म मरण नहीं हुआ करता । वे अवतार धारण आदि नहीं करते । संचित आयुकर्मके पूर्ण हो जानेको मरण और नवीन आयुकर्मके उदयमें आनेको ही जन्म कहते हैं । भवान्तरके लिये कब जाना कहाँ जाना कैसे जाना किस मार्गसे जाना इत्यादि सभी कार्य कर्मके निमित्तसे ही जीवके सिद्ध हुआ करते हैं। कर्मकी सामर्थ्य अचिन्त्य है । अतएव उसके ही अनुसार यथायोग्य जन्मक्षेत्रको प्राप्त हुआ जीव औदारिक या वैक्रियिक शरीरकी रचनाके योग्य 'पुद्गल द्रव्यका ग्रहण किया करता है, और कर्मके निमित्तसे ही उनकी शरीरादिरूप रचना हुआ करती है। शरीर योग्य पुद्गलके ग्रहणको ही जन्म कहते हैं । जन्मके हेतु आदिका वर्णन आगे चलकर बताया जायगा कि " यह जीव सकषाय होनेसे कर्मके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण किया करता है " तथा " मन वचन काय और श्वासोच्छास ये सब पद्गल द्रव्यके ही उपकार हैं " और " कर्मके निमित्तसे योगविशेषके द्वारा यह जीव स्वक्षेत्र और परक्षेत्रसे जिनका ग्रहण किया करता है, ऐसे अनन्तानन्त सूक्ष्म कर्म पुद्गल आत्माके सम्पूर्ण प्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाह करके स्थित हैं"। इस तरह तीन प्रकारकी उपपत्तियोंके द्वारा जिस जन्मका वर्णन किया जायगा, वह आश्रय भेदसे तीन प्रकारका है । वे तीन प्रकार कौनसे हैं ! इस बातको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं: सूत्र--सम्मूर्छनग पपाता जन्म ॥ ३२ ॥ भाष्यन्-सम्मूर्छनं गर्भ उपपात इत्येतत्रिविधं जन्म । अर्थ-जन्मके तीन भेद हैं-सम्मर्छन गर्भ और उपपात । भावार्थ-जिस स्थानपर प्राणीको उत्पन्न होना है, उस स्थानके पुद्गल द्रव्यका उस जीवके शरीरके रूपमें परिणमन करना इसको सम्मर्छन कहते हैं । जैसे कि काठ आदिकमें घुण लग जाता है, फलादिकमें कीड़े पड़ जाते हैं, और शरदी गर्मी आदिका 'निमित्त पाकर शरीरमें या वस्त्रादिकमें जू वगैरह पड़ जाते हैं, पानी आदिका निमित्त पाकर अन्नमें अंकुर और जमीनमें घास आदि उत्पन्न हो जाती है, इत्यादि शरीरोंकी उत्पत्तिको सम्मुर्छन जन्म कहते हैं। क्योंकि उस स्थानपर जीवके आते ही उसी स्थानके पुद्गल शरीररूप परिणत हो जाते हैं। इसीको संमूर्छन-जन्म कहते हैं। एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय'पर्यन्त सभी जीवोंका सम्र्छन ही जन्म हुआ करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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