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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः दो समयसे अधिक समय तक अनाहारक क्यों नहीं रहता, इसके लिये भंगप्ररूपणा बतानेका अभिप्राय यह है, कि जिस विग्रहगतिमें एक या दो समय तक अनाहारक रहना बताया है, उससे यहाँपर द्विविग्रहा और त्रिविग्रहा गति ही ली गई है। पहला समय च्युतदेशका और चौथा समय जन्मदेशका होनेसे इनमें जीव आहारक माना गया है । अतएव द्विविग्रहामें एक समय और त्रिविग्रहामें दो समय अनाहारकके समझने चाहिये । भाष्यम्-अत्राह-एवमिदानीं भवक्षये जीवः अविग्रहया विग्रहवत्या वा गत्या गतः कथं पुनर्जायत इत्यत्रोच्यते,-उपपातक्षेत्रं स्वकर्मवशात् प्राप्तः शरीराथै पुद्गलग्रहणं करोति । “सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते" इति, तथा “कायवाङमनः प्राणापानाः पुद्गलनामुपकारः", "नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्" इतिवक्ष्यामः । तज्जन्म । तच्च त्रिविधम् । तद्यथा अर्थ-प्रश्न-आपने अभीतक के कथनसे यह बात तो बताई, कि भवक्षय होनेपर मृत्युको प्राप्त होकर जीव मार्गमें अविग्रहा अथवा विग्रहवती दोनोंमें से किसी भी गतिके द्वारा आकाश प्रदेश पंक्तिके अनुसार गमन किया करता है, परन्तु अभीतक यह नहीं बताया, कि इस तरहसे गमन करके उत्पन्न किस प्रकार हुआ करता है। अतएव कहिये कि उत्पन्न होनेके क्षेत्रपर किस तरह उत्पन्न होता है ? उत्तर-अपने कर्मके अनुसार यह जीव उपपातक्षेत्र-जहाँपर इसको उत्पन्न होना है, वहाँपर पहुँचकर शरीरके योग्य पुद्गल द्रव्य ग्रहण किया करता है। किंतु वे पुद्गल किस प्रकारसे ग्रहण करने में आते हैं, और आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं, यह बात आगे चलकर “स कषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पदलानादेत्ते" और "कायवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानामुपकारः" तथा "नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् " इन सूत्रोंके द्वारा बतावेंगे । इस प्रकारसे पुदल ग्रहण करनेको ही जन्म कहते हैं और वह जन्म आश्रयभेदसे तीन प्रकारका है। भावार्थ-मृत्युको प्राप्त हुआ जीव अविग्रहा या विग्रहवती गतिके द्वारा चलकर जन्मक्षेत्रको अपने कर्मके अनुसार पहुँचता है । इस कथनसे ग्रंथकारने ईश्वरके कर्तृत्ववादका निराकरण किया है । क्योंकि बहुतसे लोगोंका यह अभिमत है, कि जीवका मरना और जीना-जन्म धारण करना ईश्वरपर निर्भर है। ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टिका कर्ता हर्ता विधाता है, उसकी शक्तिके विना संसारका उत्पाद विनाश और संरक्षण नहीं हो सकता । परन्तु वास्तवमें यह बात नहीं है। सर्वथा वीतराग कृतकृत्य परमात्माकी कर्तता युक्ति और अनुभवसे असिद्ध तथा बाधित है। अतएव जीवका मरना और जन्मान्तरको जाना कर्मके निमित्तसे ही १-दिगम्बर सिद्धान्तके अनुसार तीन निष्कुट क्षेत्रोंमें मोड़ा लेनेपर तीन समयतक भी अनाहारक रह सकता है । लोकनाड़ीमें ऐसे क्षेत्रमें भी उत्पत्ति हो सकती है, जहाँपर पहुँचनेमें तीन मोड़ाओंके लिये तीन समयतक रुकना पड़ता है । २-अध्याय ८ सूत्र २।३-अध्याय ५ सूत्र १५ । ४-अध्याय ८ सूत्र २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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