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सूत्र ३०-३१।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१०३ समयके द्वारा और जिसमें दो विग्रह पाये जाते हैं, वह तीन समयके द्वारा तथा जिसमें तीन विग्रह पाये जाते हैं, वह चार समयके द्वारा हुआ करती है । इस प्रकारसे इस विषयमें भङ्गप्ररूपणा लगा लेनी चाहिये । .. यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है, कि विग्रहगतिको धारण करनेवाले जीव आहारक होते हैं अथवा अनाहारक ? इसका उत्तर स्पष्ट है कि अनाहारक ही होते हैं । क्योंके वहाँपर कामणयोगके सिवाय और कोई भी योग नहीं पाया जाता । किंतु पुनः यह प्रश्न हो सकता है, कि यदि वे अनाहारक ही होते हैं, तो उनकी अनाहारकताका काल कितना है ? इसका उत्तर देनेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-एकं द्वौ वाऽनाहारकः ॥३१॥ भाष्यम्-विग्रहगतिसमापनो जीव एकं वा समय द्वौ वा समयावनाहारको भवति । शेष काल मनुसमयमाहारयति । कथमकं द्वौ वाऽनाहारको न बहूनीत्यत्र भंगप्ररूपणा कार्या
अर्थ-उपर्युक्त विग्रहगतिको अच्छी तरहसे प्राप्त हुआ जीव एक समय मात्रके लिये अथवा दो समयके लिये अनाहारक हुआ करता है। किंतु शेष समयमें प्रतिक्षण आहारको ग्रहण किया करता है । वह एक समय तक अथवा दो ही समय तक अनाहारक क्यों रहता है ? अधिक समय तक भी अनाहारक क्यों नहीं रहता ? इसके लिये भङ्गप्ररूपणा कर लेनी चाहिये।
भावार्थ-आहार शब्दसे यहाँपर औदारिक वैक्रियिकशरीरके पोषक पदलोंके ग्रहणसे अभिप्राय है। इस आहारके ग्रहण न करनेवालेको अनाहारक कहते हैं । आहार. तीन प्रकारको है-ओजआहार लोमाहार और प्रक्षेपाहार । कार्मणशरीरके द्वारा यथायोग्य योनिमें प्राप्त होनेपर प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक जो पुद्गलोंका ग्रहण होता है, उसको ओजआहार कहते हैं। पर्याप्त अवस्था होनेपर प्रथम समयसे लेकर मरण समयपर्यन्त त्वचाके द्वारा जो पुद्गलोंका ग्रहण होता है, उसको लोमाहार कहते हैं, और खाने पीने आदिके द्वारा जो पुद्गल पिंड ग्रहण करनेमें आता है, उसको प्रक्षेपाहार कहते हैं । इनमेंसे विग्रहगतिमें एक या दो समयतक कोई भी आहार नहीं होता ।
१-"परिपोषहेतुको य आहार औदारिक वैक्रियशरीरद्वयस्य स विवक्षितः प्रतिबेध्यत्वेन ।”-श्रीसिद्धसेनगणी किंतु दिगम्बर सिद्धान्तके अनुसार इस सूत्रकी व्याख्यामें अनाहारकका अर्थ तीन शरीर और छह पर्याप्तिके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण न करना है। और अनाहारक अवस्था तीन समयतक मानी है । इस विषयमें श्रीसिद्धसेनगणीने कहा है कि " यदि पुनः पंचसमयायां गतौ वा शब्देन समयत्रयं समुच्चीयते ? उच्यते-अभिहितं प्राक् न तादृश्यांगत्यां कश्चिदुपपद्यते, अथास्ति संभवः, न कश्चिद्दोषः।" २-दिगम्बर सिद्धान्तमें आहार छह प्रकारका माना है यथा-"गोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओजमणो वियकमसो आहारो छब्बिहो यो। ..
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