SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम [ द्वितीयोऽध्यायः पहले ही हुआ करते हैं । इन गतियों में चोर समय तक लगा करते हैं, अतएव कालभेदक अपेक्षासे इन गतियोंके चार भेद हैं- अविग्रहा एक विग्रहा द्विविग्रहा और त्रिविग्रहा । इससे अधिक मेद भी संभव नहीं और समय भी नहीं लगता, क्योंकि इसके आगे जीवकी गतिका प्रतिघात नहीं होता, और न विग्रहके लिये कोई निमित्त ही है । विग्रह नाम मोडा - टेढ़ का है। विग्रह अवग्रह और श्रेण्यन्तर संक्रान्ति ये सब शब्द एक ही अर्थके द्योतक हैं । जिस प्रकार यहाँ जीवकी गति के विषयमें नियम बताया है, उसी प्रकार पुद्गलके विषय में भी समझना चाहिये ।। I १०२ जो शरीरको छोड़कर गमन नहीं करते - शरीर के धारण करनेवाले हैं, उन जीवों के गतिके लिये जैसा भी प्रयोग–परिणमन करनेवाला निमित्त मिल जाता है, उसीके अनुसार दोनों में से कैसी भी-विग्रहवती अथवा अविग्रहा गति हो जाती है । शरीरधारी जीवोंकी गति के लिये. विग्रहका कोई भी नियम नहीं है । भाष्यम्-अथ विग्रहस्य किं परिमाणमिति । अत्रोच्यते ।- क्षेत्रतो भाज्यम् : कालतस्तु अर्थ — भवान्तर के लिये जाते समय जीवको जो विग्रह धारण करना पड़ता है, है, उसका प्रमाण कितना है ? उसमें कितना समय लगता है ? उत्तर - क्षेत्रकी अपेक्षा तो यथायोग्य समझ लेना; परन्तु कालकी अपेक्षा सूत्र - - एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३० ॥ भाष्यम् - एकसमयोऽविग्रहो भवति । अविग्रहा गतिरालोकान्तादप्येकेन समयेन भवति एक विग्रहा द्वाभ्याम्, द्विविग्रहा त्रिभिः, त्रिविग्रहा चतुर्भिरिति । अत्र भङ्गप्ररूपणा कार्येति ॥ अर्थ — विग्रह रहित गति एक समयकी हुआ करती है । अर्थात् ऐसी गति जिसमें कि विग्रह नहीं पाया जाता यदि लोकान्तप्रापिणी हो, तो भी वह एक ही समयके द्वारा होती है, उसमें अधिक समय नहीं लगते । अतएव जिसमें एक विग्रह पाया जाता है, वह दो १ –– दिगम्बर सिद्धान्त के अनुसार विग्रहगतिमें तीन समय से अधिक नहीं लगते । २ - आगममें सात श्रेणी बताई हैं - ऋज्वायता एकतोवका द्विधावका एकतःखा द्विधारदा चकवाला और अर्धचक्रवाला । इनमेंसे आदिकी तीन क्रमसे एक दो तीन समयके द्वारा हुआ करती हैं । इनके सिवाय चतुःसमया और पंचसमयागति भी संभव हैं, परन्तु उनमें यह विशेषता है, कि चतुःसमया गतिका तो सूत्र द्वारा उल्लेख पाया जाता है, किंतु पंचसमयाका सूत्रतः अथवा अर्थतः उल्लेख नहीं है । संसारी जीवोंके समान परमाणु आदि पुलोंकी भी चार प्रकारकी गति हुआ करती है । तथा विग्रह और कालका नियम अन्तर्गतिमें समझना चाहिये । ३ - विग्रहवतीगतिका एक समय उपलक्षण है, अतएव यह नियम नहीं है, कि एक समयप्रमाण कालमें विग्रह ही हो । ऋज्वीगतिमें विग्रह नहीं पाया जाता, फिर भी वह एकसमया है । लोकान्तप्रापिणी भी एकसमयमें होती है । जिस प्रकार कोई. मनुष्य तो एक घंटे में दो मील चलता है, और कोई मनुष्य एक ही घंटे आधा मील ही चल पाता है ।. इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy