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________________ सूत्र २७-२८-२९ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उसमें कर्मयोगका होना बताया है । परन्तु अभीतक यह नहीं मालूम हुआ, कि संसारातीत सिद्ध जीव जो शरीरको छोड़कर ऊर्ध्वगमन करते हैं, उनकी गति किस प्रकार होती है । वह मोड़ा लेकर होती है, या विना मोड़ा लिये ही ? अतएव उनकी गति--पंचमगतिका नियम बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र--अविग्रहा जीवस्य ॥ २८ ॥ ' भाष्यम्-सिद्धयमानगतिर्जीवस्य नियतमविग्रहा भवतीति ॥ __ अर्थ-जीवोंकी सिद्धयमान गति अर्थात शरीरको छोड़कर लोकान्तको जाते समय मुक्त जीवोंकी जो गति होती है, वह नियमसे मोड़ा रहित ही होती है। भावार्थ-पहले सूत्रमें जीव और पुद्गल दोनोंकी . अनुश्रेणिगति कही है। इससे दोनोंका ही यहाँपर भी बोध हो सकता था, परन्तु जीव शब्दके ग्रहणसे पुद्गलका निराकरण हो जाता है । तथा आगेके सूत्रमें संसारी शब्दका ग्रहण किया है, इससे यहाँपर जीव शब्दसे सिद्धयमान जीवका अभिप्राय है, यह बात सामर्थ्यसे ही लब्ध हो जाती है। जो सिद्धचमान जीव नहीं हैं, उनकी गति ऋजु और वक्रा दो तरहकी होती है, यह तो ठीक, परन्तु उनकी वकागति किस प्रकार होती है-उसमें कितना काल लगता है, सो नहीं मालम हुआ, अतएव उसका नियम बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं सूत्र-विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्म्यः ॥ २९ ॥ भाष्यम्-जात्यन्तर सक्रान्तौसंसारिणो जीवस्य विग्रहवती चाविग्रहा च गतिभवति उपपातक्षेत्रवशात् तिर्यगूलमधश्च प्राकू चतुर्म्य इति । येषां विग्रहवती तेषां विग्रहाः प्राकूचतुभ्यो भवन्ति । अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहा त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुःसमयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति । परतो न संभवन्ति, प्रतिघाताभावाद्विग्रहनिमित्ताभावाच्च । विग्रहो वक्रितं विग्रहोऽवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्तिरित्यनर्थान्तरम् । पुद्गलानामप्येवमेव ॥ शरीरिणां च जीवानां विग्रहवती चाविग्रहवती च प्रयोगपरिणामवशात् । न तु तत्र विग्रहनियम इति ॥ ____ अर्थ-संसारी जीव जब अपने किसी भी एक शरीरको छोड़कर अन्य शरीरको 'धारण करनेके लिये अर्थात् भवान्तरके लिये गमन करता है, उस समय उसके विग्रहवती अथवा अविग्रहागति हुआ करती है । किंतु जैसा उपपात क्षेत्र-जन्मक्षेत्र मिलता है, वैसी गति होती है । यदि विग्रहवतीके योग्य क्षेत्र होता है, तो विग्रहवतीगति होती है, और यदि अविग्रहाके योग्य जन्मक्षेत्र होता है, तो अविग्रहा हुआ करती है । परन्तु यह गति तिर्यक् ऊर्ध्व और अधः ऐसे तीनों दिशाओंकी मिलाकर चार समयके पहले पहले ही हुआ करती है। क्योंकि जिन जीवोंकी विग्रहवतीगति होती है, उनके विग्रह चार समयके पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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