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________________ १०० रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् । [द्वितीयोऽध्यायः और होते हैं । विग्रहगति और केवलसमुद्घातके सिवाय अन्य अवस्थामें कार्मणयोग नहीं होता, शेष योग ही होते हैं। यहाँपर कोई कोई ऐसी शंका किया करते हैं, कि जब शरीरके पाँच भेद हैं, तो उनमेंसे एक तैजस शरीरके द्वारा भी योगका होना क्यों नहीं बताया ! परन्तु इसका उत्तर भाष्यकार आगे चलकर स्वयं देंगे। यहाँपर यह शंका हो सकती है, कि जीवोंकी यह भवान्तर-प्रापिणी-गति किसी तरह नियमबद्ध है, अथवा अनियत-चाहे जिस तरहसे भी हो सकती है, अतएव उसका भी नियम है, इस बातको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र--अनुश्रेणिगतिः ॥२७॥ भाष्यम्--सर्वा गतिर्जीवानां पुद्गलानां चाकाशप्रदेशानुश्रेणिभवति। विश्रेणिर्न भवतीति गतिनियम इति ॥ अर्थ-जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्योंकी समस्त गति आकाशप्रदेशके अनुसार ही हुआ, करती है, उसके विरुद्ध गति नहीं होती, ऐसा गतिके विषयमें नियम है ॥ भावार्थ-यह गति सम्बन्धी नियम सम्पूर्ण जीव पुद्गल द्रव्योंके लिये है, परन्तु उनकी समस्त अवस्थाओंके लिये नहीं है, किंतु अवस्था विशेषके लिये है । भवान्तरको जाते समय जीवकी जो गति होती है, वह ऊर्ध्व अधः अथवा तिर्यक् किधरको भी हो आकाशप्रदेशपंक्तिके अनुसार ही हुआ करती है । इसी प्रकार पुद्गलकी जो स्वाभाविकीगति होती है, वह श्रेणिके अनुसार ही होती है। जैसे कि एक पुद्गलका अणु विना किसी सहायकके चौदह राज तक लोकके एक भागसे लेकर दूसरे भागतक एक समयमें गमन किया करता है, यह प्रवचनका वचन है, पदलकी ऐसी स्वाभाविकीगति अनुश्रेणि ही होती है, विश्रेणि नहीं होती। यद्यपि यहाँपर जीवद्रव्यका अधिकार है, इसलिये इस सूत्रके द्वारा जीवकी गतिका ही नियम होना चाहिये, ऐमी शंका हो सकती है, परन्तु आगके सूत्रमें जीव शब्दका पाठ किया है, उसके सामर्थ्यसे इस सूत्रमें पुद्गल द्रव्यके भी ग्रहण करनेका अर्थ निकल आता है। क्योंकि आगेके सत्रमें जीव द्रव्यका अर्थ अधिकारके ही अनुसार हो सकता है, अतएव जीव शब्दका ग्रहण करना व्यर्थ है, वह व्यर्थ पड़कर ज्ञापन करना है, कि इस पूर्व सत्रमें पुद्गलका भी ग्रहण है, जिसकी कि व्यावृत्तिके लिये जीव शब्दका पाठ करना आवश्यक है। “विग्रहगतौ कर्मयोगः " इस सूत्रमें विग्रह शब्दसे दो अर्थ लिये हैं, एक शरीर दुसरा मोड़ा । इसी लिये शरीर धारण करनेको जो जीवकी मोडेवाली वक्रागति होती है, १- सर्वस्य '' इस सूत्र ( अ० २ सूत्र ४३ ) के व्याख्यानमें २-" अनुश्रेणिर्गतिः ।" ऐसा भी कहीं कहीं पाठ है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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