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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
सूत्र--विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २६ ॥
भाष्यम् - विग्रहगतिसमापन्नस्य जीवस्य कर्मकृत एव योगो भवति । कर्मशरीरयोग इत्यर्थः । अन्यत्र तु यथोक्तः कायवाङ्मनोयोग इत्यर्थः ।
-सूत्र २६ । ]
अर्थ — जिस क्रिया के द्वारा क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरकी प्राप्ति हो, उसको गति कहते हैं । और विग्रह नाम शरीरका है । अतएव शरीर धारण करनेके लिये जो गति होती है, उसको विग्रहगति कहते हैं । जो जीव इस अवस्थाको धारण करनेवाले हैं, उनके कर्मकृत ही योग पाया जाता है । कार्मणशरीरके द्वारा जो योग- प्रदेशपरिस्पन्दन होता है, उसको कर्मयोग कहते हैं । विग्रहगतिमें तो यही योग रहता है, परन्तु इसके सिवाय अन्य अवस्थावाले जीवोंके काययोग वचनयोग और मनोयोग ये तीनों योग रहा करते हैं ।
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भावार्थ — यहाँपर संसारी जीवका अधिकार है । संसारका अर्थ बता चुके हैं, कि जो संसरण करनेवाले हों । संसरण दो प्रकारसे हुआ करता है । एक देशान्तरप्राप्तिरूप से दूसरा भवान्तरप्राप्तिरूपसे । एक शरीरको छोड़कर अन्य स्थानपर जाकर दूसरे शरीरको धारण करने का नाम देशान्तरप्राप्ति और मरकर उसी छोड़े हुए शरीरमें उत्पन्न होने का नाम भवान्तरप्राप्ति है । यह दोनों ही प्रकारका संसरण चेष्टारूप योगके विना नहीं हो सकता । अतएव त्यक्त और ग्राह्य शरीरों के मध्यमें जीवकी गति हुआ करती है । इसीको विग्रहगति कहते हैं । यह दो प्रकारकी होती है - ऋज्वी और वक्रा । धनुषपरसे छूटे हुए बाणके समान जो सीधी गति होती है, उसको ऋज्वी कहते हैं, और जिसमें मोड़ा लेना पड़े, उसको वक्रा कहते हैं । ऋज्वीगतिमें समय नहीं लगता; क्योंकि यहाँपर पूर्व शरीरका त्याग और उत्तर शरीरका ग्रहण एक ही समयमें हो जाता है, अतएव उसमें भिन्न समय नहीं लगता । किंतु वक्रागतिमें मोड़ा लेना पड़ता है, इसलिये इसमें एकसे लेकर तीन समयतक लगते हैं । इसी लिये वकागतिके तीन भेद हैं- एकसमया द्विसमया और त्रिसमया ।
मन वचन और कायके द्वारा जो आत्मा के प्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है, उसको योग कहते हैं। इसके मूलभेद तीन हैं, मनोयोग वचनयोग और काययोग; किंतु उत्तरभेद पंद्रह हैं 1 चार प्रकारका मनोयोग - सत्य असत्य उभय और अनुभये । इसी प्रकार वचनयोग भी चार प्रकारका है - सत्य असत्य उभय और अनुभय । काययोगके सात भेद हैं- औदारिक औदारिकमिश्र वैक्रियिक वैक्रियिकमिश्र आहारक आहारकमिश्र और कार्मण । उपर्युक्त वक्रागतिके समय जीवके इनमें से एक कार्मणयोग ही हुआ करता है, अन्य समयमें अन्य योग भी हो सकते हैं,
१ – अथवा इस तरहसे भी चार भेद हैं- सत्य असत्य सत्यासत्य असत्यामृषा । वचनयोग के भी इसी - तरह चार भेद समझने चाहिये ।
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