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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः संप्रधारणसंज्ञा । तां प्रति सञ्ज्ञिनो विवक्षिताः । अन्यथा ह्याहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाभिः सर्व एव जीवाः संज्ञिन इति ॥ अर्थ — संप्रधारण संज्ञाकी अपेक्षासे जो जीव संज्ञाको धारण करनेवाले हैं, उनको समनस्क कहते हैं। सातों ही भूमियोंमें रहनेवाले समस्त नारकी तथा चारों निकायवाले सम्पूर्ण देव और गर्भसे जन्म धारण करनेवाले सभी मनुष्य एवं कोई कोई तिर्यंच जीव समनस्क समझने चाहिये । ईहा और अपोहसे युक्त गुण तथा दोषोंके विचारको सम्प्रधारण संज्ञा कहते हैं । इस तरहकी संज्ञाको जो धारण करते हैं, उनको ही प्रकृतमें संज्ञी शब्दसे लिया गया है । यदि यह अर्थ नहीं लिया जायगा, तो पृथिवीकायादिक सभी संसारी जीव जो कि आहार भय मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंको धारण करनेवाले हैं, संज्ञी कहे जा सकेंगे । ९८ भावार्थ- समनस्क और अमनस्कर्मे से समनस्क किसको समझना ? इसके उत्तर में कहते हैं, कि जो संज्ञी हैं - संज्ञाके धारण करनेवाले हैं, उनको समनस्क समझना चाहिये । परन्तु संज्ञा शब्दसे अनेक अर्थोका ग्रहण होता है । नाम इच्छा सम्यग्ज्ञान आदि भी संज्ञा शब्दसे कहे जा सकते हैं । अतएव उसका तात्पर्य स्पष्ट करते हैं, कि ईहा और अपोहरूपसे गुणदोषों के विचार करनेकी शक्तिको यहाँ संज्ञा शब्दसे लेना चाहिये । इसीको संप्रधारण संज्ञा कहते हैं । यह शंखध्वनि है अथवा शृङ्गध्वनि है, इस तरहकी तर्करूप कल्पनाको ईहा कहते हैं, और मधुरता आदिके द्वारा यह शंखध्वनि ही है, न कि शृङ्गध्वनि इस तरहसे एक विषयको ग्रहण करते हुए शेष के परित्याग करने रूप विचारको अपोह कहते हैं । जिन कारणोंसे अभिप्रेत विषयकी सिद्धि हो, उनको गुण कहते हैं, और जिनसे उस सिद्धिमें बाधा हो, उनको दोष कहते हैं । इस प्रकार ईहा और अपोहके द्वारा गुण दोषोंका विचार कर उनमें ग्राह्य तथा त्याज्य बुद्धिके होको संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा मनसहित जीवोंके ही पाई जाती है, अन्यके नहीं । यद्यपि यह संज्ञा ज्ञानरूप ही है, परन्तु मन रहित केवल इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले ज्ञानकी अपेक्षा उत्कृष्ट है, इसलिये इसको संज्ञा कहते हैं । अतएव वह समनस्कताका बोधक है । देव नारकी और मनुष्य सब समनस्क ही होते हैं । परन्तु तिथंचों में दो भेद हैंसमनस्क और अमनस्क । जो गर्भ जन्म धारण करनेवाले हैं, वे ही तिर्यंच समनस्क होते हैं; किन्तु वे सभी समनस्क नहीं हुआ करते' । समनस्कका अर्थ बतानेपर अमनस्कका अर्थ अर्थापत्तिसे ही ज्ञात हो जाता है, कि जो इनके सिवाय संसारी जीव हैं, वे सभी अमनस्क हैं । इस तरह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके विषयका नियम बताया । इससे यह भी मालूम हो जाता है, कि मनोयोग किनके पाया जाता है । अब यह बताते हैं, कि जो जीव एक शरीको छोड़कर शरीरान्तरको धारण करनेके लिये गमन करते हैं, उनके कौनसा योग पाया जाता है: १ - भाष्य के " केचित् " शब्दसे टीकाकारने केवल सम्मूर्छन जन्मवालोंका ही परिहार किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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