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सूत्र २३-२४-२५ । ]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
जीवोंके एक इन्द्रिय अधिक है । इस तरहके जीवोंके पृथिवी आदिककी अपेक्षा एक अधिक स्पर्शन रसन ये दो इन्द्रियाँ होती हैं । एक अधिकसे रसनेन्द्रिय ही क्यों अधिक होती है, तो इसके लिये सूत्रक्रम ही प्रमाण है । तथा यही बात त्रीन्द्रिय आदि जीवोंके विषय में भी समझनी चाहिये । अर्थात् चींटी पई दीमक कुन्थुआ तम्बुरुक त्रपुसबीज कर्पासास्थिका शतपद्युत्पतक तृणपत्र काष्ठहारक - घुण इत्यादि जीवोंके कीड़ी आदिकी अपेक्षा एक इन्द्रिय अधिक अर्थात् स्पर्शन रसन घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ हैं । भ्रमर वटर - वर्र सारङ्ग - ततैया मक्खी पुत्तिका डांस मच्छर विच्छू नन्द्यावर्त कीट पतङ्ग इत्यादि जीवोंके चींटी आदिकी अपेक्षा एक इंद्रिय अधिक है, अर्थात् इस तरहके जीवोंके स्पर्शन रसन घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं । इनके सिवाय बाकीके तिर्यच - - मत्स्य दुमुही सर्व पक्षी चौपाये - गौ भैंस घोड़ा हाथी आदि जीवोंके एवं सभी नारकी मनुष्य और देवोंके भ्रमरादिकी अपेक्षा एक अधिक अर्थात् स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों ही इन्द्रियाँ होती हैं ।
भावार्थ — कृमि आदिक पिपीलिका आदिक, इत्यादि शब्दों में आदि शब्दसे उन्हीं जीवोंका ग्रहण समझना चाहिये, जिनकी कि इन्द्रियाँ समान हैं । अर्थात् इन्द्रिय संख्या की अपेक्षा समान जातिके ही जीवोंका आदि शब्दसे ग्रहण करना चाहिये । यद्यपि कोई कोई इस सूत्र में मनुष्य शब्दका पाठ नहीं करते, परन्तु ऐसा करना उचित नहीं है । मनुष्य शब्दका पाठ किये बिना भ्रमरादिका पाठ भी अयुक्त ही ठहरेगा, और ऐसा होनेसे किन किन इन्द्रियों के कौन कौन स्वामी हैं, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता ।
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भाष्यम् – अत्राह-उक्तं भवता द्विविधा जीवाः समनस्का अमनस्काश्चेति । तत्र के समनस्का इति ? । अत्रोच्यतेः
अर्थ --- प्रश्न - आपने पहले जीवों के दो भेद बताये थे, एक समनस्क दूसरे अमनस्क । उनमेंसे समनस्क जीव कौनसे हैं ? अर्थात् इन्द्रिय और अनिन्द्रियमेंसे इन्द्रियोंकी अपेक्षा जीवोंका नियम तो बताया, परन्तु अनिन्द्रियकी अपेक्षा अभीतक जीवोंका कोई भी नियम नहीं बताया । अतएव उसके बतानेके अभिप्रायसे इस प्रश्नका आश्रय लेकर उत्तर देनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
सूत्र - - संज्ञिनः समनस्काः ॥ २५ ॥
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भाष्यम् – संप्रधारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । सर्वे नारकदेवा गर्भन्युत्कान्तयश्च मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाश्च केचित् ॥ ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका
१ – कोई कोई इस सूत्र के पहले “ अतीन्द्रियाः केवलिनः " ऐसा एक सूत्र और भी पढ़ते हैं । परन्तु टीकाकारने उसका खण्डन किया है । आगममें हेतु काल आदि संज्ञाएं अनेक प्रकारकी बताई हैं, उनमेंसे भाष्यकार ने यहाँपर संप्रधारण संज्ञाका ही व्याख्यान किया है ।
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