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________________ “१४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः सूत्र-स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तेषामर्थाः ॥२१॥ भाष्यम्-एतेषामिन्द्रियाणामेतेस्पर्शादयोऽर्था भवन्ति यथासंख्यम् ॥ अर्थ-उपर्युक्त पाँच इन्द्रियोंके क्रमसे ये पाँच विषय हैं-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द। भावार्थ-ये शब्द कर्मसाधने हैं । अतएव इनका अर्थ इस प्रकार करना चाहिये, कि जो छुआ जाय उसको स्पर्श, जो चखा जाय उसको रस, जो संघा जाय उसको गंध, जो देखा जाय उसको वर्ण, और जो सुना जाय उसको शब्द कहते हैं। ये नियत इन्द्रियोंके सिवाय अन्य इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते । इन्द्रियोंका और उनके विषय ग्रहणका नियम दोनों ही तरफसे है । यथा-स्पर्श विषय स्पर्शनेन्द्रियके द्वारा ही जाना जा सकता है, न कि अन्य इन्द्रियके द्वारा, इसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रियके द्वारा स्पर्श ही जाना जा सकता है न कि रसादिक । इसी तरह रसना आदिक इन्द्रियों और उनके रसादिक विषयोंके विषयमें भी समझना चाहिये । अतएव पाँचो इन्द्रियोंके क्रमसे ये पाँच विषय बताये हैंस्पर्शनेन्द्रियका विषय स्पर्श, रसनेन्द्रियका विषय रस, घ्राणेन्द्रियका विषय गंध, चक्षुरिन्द्रियका विषय वर्ण-रूप, और श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द । ___ इन्द्रियाँ अपने अपने विषयका ग्रहण करनेमें दो प्रकारसे प्रवृत्त हुआ करती हैं । एक प्राप्तिरूपसे दूसरे अप्राप्ति रूपसे । चक्षुरिन्द्रिय अप्रोप्ति रूपसे ही पदार्थको ग्रहण करती है, बाकी चारों इन्द्रियाँ प्राप्तिरूपसे ही विषयका ग्रहण करती हैं। इन इन्द्रियों के विषयभूत क्षेत्रादिका प्रमाण भी भिन्न भिन्न है। कौन कौनसी इन्द्रिय कितनी कितनी दूरके पदार्थको ग्रहण कर सकती है है यह नियम ग्रन्थान्तरसे जानना चाहिये । जैसे कि स्पर्शन रसना और घ्राण इन्द्रियका क्षेत्र नौ योजन प्रमाण है । इसका अर्थ यह है, कि इतनी दूरतकसे आया हुआ पुद्गल स्पष्ट होनेपर इन इन्द्रियोंके द्वारा जाना जा सकता है । १-स्पृश्यते इति स्पर्शः, रस्यते इति रसः, इत्यादि । २-चक्षुकी अप्राप्यकारिताका समर्थन न्यायके प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि अनेक ग्रन्थोंमें किया गया है । ३-पुटं सुणोदि सई अपुढे चेव पस्सदे रूबं । फासं रसं च गन्धं बद्धं पुढे विजाणादि ।। ४-श्रोत्रेन्द्रियका क्षेत्र बारह योजन और चक्षुरिन्द्रयका उत्कृष्ट क्षेत्र आत्मामुलकी अपेक्षा एक लक्ष योजनसे कुछ अधिक है। दिगम्बर सिद्धान्तके अनुसार इन्द्रियोंका विषयभूत क्षेत्र इस प्रकार है-एकेन्द्रियके स्पर्शनका क्षेत्र चारसौ धनुष है, और वह असंज्ञी पंचेन्द्रियतक क्रमसे दूना दूना होता गया है, द्वीन्द्रियके रसनाका क्षेत्र ६४ धनुष और आगे . दूना दूना है। त्रीन्दियके घ्राणका क्षेत्र १०० धनुष आगे दूना दूना है । चतुरिन्द्रयके चक्षुका क्षेत्र दो हजार नौ सौ चौअन योजन और असंज्ञीके दूना है। असंज्ञीके श्रोत्रका क्षेत्र आठ हजार धनुष है, संज्ञीके स्पर्शन रसना घ्राणका क्षेत्र नौ नौ योजन, श्रोत्रका १२ योजन, और चक्षुका सैंतालीस हजार दो सौ सठसे कुछ अधिक है । चक्षुके इस उत्कृष्ट विषयक्षेत्रको निकालनेकी उपपत्ति इस प्रकार है. “ तिण्णिसयसटिविरहिदलक्खं दसमूलताडिदे मूलम् । णवगुणिंद सहिहिदे चक्खुप्फासस्स अद्धाणं ॥ १६९ ॥-गो. जीवकाण्ड । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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