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सूत्र २१-२२ । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
स्पर्श आठ प्रकारका है - शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु, कठोर । रस पाँच प्रकारका है - मधुर आम्ल कटु कषाय और तिक्त । गंध दो प्रकारका है - सुगंध और दुर्गं । वर्ण पाँच प्रकारका है - श्वेत नील पीत रक्त हरित । शब्द गर्जित आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है । अथवा अक्षर अनक्षर आदि भेदरूप है ।
इस प्रकार पाँच इन्द्रियोंका विषय बताया, परन्तु मतिज्ञानमें इन्द्रियोंकी तरह अनिन्द्रिको भी निमित्त माना है । अतएव इन्द्रियों की तरह अनिन्द्रियका भी विषय बताना चाहिये । इसीलिये आगेका सूत्र कहते हैं:
सूत्र - - श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २२ ॥
भाष्यम् - श्रुतज्ञानं द्विविधमनेकद्वादशविधं नोइन्द्रियस्यार्थः ।
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अर्थ - श्रुतज्ञानके मलमें दो भेद हैं- अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य । अङ्गप्रविष्टके आचाराङ्गादि १२ भेद और अङ्गबाह्यके अनेक भेद हैं । यह पहले कहा जा चुका है । इन सम्पूर्ण भेद रूप श्रुत अनिन्द्रिय- मनका विषय है ।
भावार्थ —यहाँपर मनका विषय जो श्रुत बताया है, उससे मतलब भावश्रुतका है, जो कि श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे द्रव्यश्रुतके अनुसार विचार रूपसे तवार्थका परिच्छेदक आत्मपरिणति विशेष ज्ञानरूप हुआ करता है । जैसे किसीने धर्म द्रव्यका उच्चारण किया, उसको सुनते ही पहले शास्त्र में बाँचे हुए अथवा किसीके उपदेशसे जाने हुए गतिहेतुक धर्म द्रव्यका बोध हो जाता है, यही मनका विषय है । इसी प्रकार सम्पूर्ण तत्त्वार्थ और द्वादशाङ्गके समस्त विषयोंका जो विचार होना या करना मनका कार्य है । अर्थात् किसी भी विषयका विचार करना ही इसका विषय है । अथवा अर्थावग्रहके अनन्तर जो मतिज्ञान होता है, उसको भी उपचार से श्रुतज्ञान कहते हैं । क्योंकि वह मनके विना नहीं होता । अतएव वह भी मनका ही विषय है, परन्तु मुख्यतया द्वादशाङ्गग्रन्थ- द्रव्यश्रुतके अनुसार जो होता है, वही लिया गया है ।
मनको अनिन्द्रिय कहनेका अभिप्राय ईषत् इन्द्रिय बतानेका है, जैसे कि किसी कन्याको अनुदरा कह दिया जाता है । इन्द्रियोंकी तरह इसका विषय नियत नहीं है, और इसका स्थान भी इन्द्रियों के समान दृष्टिगोचर नहीं होता, अतएव इसको अनिन्द्रिय अथवा अन्तःकरण कहते हैं । इस प्रकार इन्द्रियोंका स्वरूप विषय और भेढ़ विधान बताया। किंतु किस किस जीवके कौन कौनसी इन्द्रियाँ होती हैं, सो अभीतक नहीं बताया है । अतएव इस बातको बतानेके लिये आगेका प्रकरण उठाते हैं:
भाष्यम्—उक्तं भवता पृथिव्यव्वनस्पतितेजोवायवो द्वीन्द्रियादयश्च नव जीवनिकायाः । पंचेन्द्रियाणि चेति । तत्किं कस्येन्द्रियमिति । अत्रोच्यते
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