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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ९३ 1 1 करता है, परन्तु एक समय में एक ही इन्द्रियके द्वारा होता है। किसी किसी ने एक ही समय में अनेक इन्द्रियोंके द्वारा भी उपयोगका होना माना है । परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि उपयोगकी गति अति सूक्ष्म होनेसे एक ही समय में प्रतीत होती है, परन्तु वास्तव में उनका समय भिन्न भिन्न ही है । जैसे कि छुरीसे सैकड़ों कमलपत्रों को काटते समय वे एक ही समय में क हुए प्रतीत होते हैं, किंतु वास्तवमें वैसा नहीं है । क्योंकि उनको काटते समय एक पत्रको काटकर जितनी देर में दूसरे पत्र तक छुरी पहुँचती है, उतनी देर में ही असंख्यात समय हो जाते हैं। इसी तरह प्रकृतमें भी समयकी सूक्ष्म गति समझनी चाहिये । अतएव एक समय में एक ही इन्द्रिय अपने विषयकी तरफ उन्मुख होकर प्रवृत्त हुआ करती है । हाँ, एक इन्द्रिय जिस समयमें अपने विषयकी तरफ उन्मुख होकर प्रवृत्ति करती है, उसी समय में द्वितीयादि इन्द्रियजन्यज्ञान भी रह सकता है । अन्यथा स्मृतिज्ञान जो देखने में आता है, सो नहीं बन सकेगा । इस अपेक्षा से अनेक इन्द्रियजन्य उपयोग भी एक समयमें माने जा सकते हैं । दूसरी बात यह भी है, कि कर्मविशेषके द्वारा अर्थान्तरके उपयोगके समय पहलेका उपयोग आवृत भी हो जाता है । भाष्यम् - अत्राह - उक्तं भवता पञ्चेन्द्रियाणि इति । तत् कानि तानि इन्द्रियाणि इति ? उच्यतेः अर्थ - प्रश्न- आपने “ पञ्चेन्द्रियाणि " इस सूत्र के द्वारा इन्द्रियाँ पाँच ही हैं, यह तो बताया, परन्तु वे कौनसी हैं, सो नहीं बताया । अतएव कहिये कि वे पाँच इन्द्रियाँ कौन कौनसी हैं - उनके नाम क्या हैं? इस प्रश्न के उत्तर में पाँचों इन्द्रियों के नाम बतानेके लिये सूत्र कहते हैं-स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ २० ॥ सूत्रभाष्यम् - स्पर्शनं, रसनं, घ्राणं, चक्षुः, श्रोत्रमित्येतानि पञ्चेन्द्रियाणि ॥ 1 अर्थ --- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । अर्थात् ये कमसे पाँच इन्द्रियोंके नाम हैं । ये नाम अन्वर्थ हैं, और इनमें अभेद तथा भेदकी विवक्षासे केर्तृसाधन और करैणसाधन दोनों ही घटित होते हैं । अतएव इनका अर्थ इस प्रकार करना चाहिये, कि जो स्पर्श करे - स्पर्शगुणको विषय करे उसको स्पर्शनें कहते हैं । तथा जिसके द्वारा स्पर्श किया जाय-जिसके आश्रयसे शीत उष्ण आदि स्पर्शकी पर्याय जानी जाँय उसको स्पर्शन कहते हैं । इन इन्द्रियोंके स्वामीका उल्लेख ग्रन्थकार आगे चलकर करेंगे । यहाँपर इनके विष यको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र २० [] १ इस प्रकार माननेवालेका नाम श्रीसिद्धसेनगणीने आर्यलिङ्ग लिखा है और उनको निन्हव करके बताया है । यथा-" यत आर्यलिङ्गनिन्हवकैर्युगपत् क्रियाद्वयोपयोगः " । २ -- स्पृशति इति स्पर्शनम्, रसतीति रसनम्, जिघ्रतीति घ्राणम्, चष्टे इति चक्षुः शृणोतीति श्रोत्रम् । ३-स्पृश्यते अनेन इति स्पर्शनम्, रस्यते अनेन इति रसनम्, जिप्रित अनेन इति घ्राणम्, चेष्ट अनेन इति चक्षुः श्रूयते अनेन इति श्रोत्रम् । ४— । कर्तृसाधन ५ - करणसाधन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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