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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीयोऽध्यायः प्रणिधानम् । आयोगस्तद्भावः परिणाम इत्यर्थः । एषां च सत्यां निर्वृत्तावुपकरणोपयोगी भवतः । सत्यां च लब्धौ निर्वृत्त्युपकरणोपयोगा भवन्ति । निर्वृत्त्यादीनामेकतराभावेऽपि विषयालोचनं न भवति । अर्थ - - मतिज्ञानके उस व्यापारको जो कि स्पर्शनादिक इन्द्रियोंके स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्दरूप प्रतिनियत विषयोंको ग्रहण करनेवाला है, उपयोग कहते हैं । स्पर्शादि विषयका मतिज्ञान ही यहाँपर उपयोग शब्दसे लिया गया है, ऐसा कहने से अवधिज्ञानादिका भाष्यकारने निषेध व्यक्त किया है, परन्तु उपयोग शब्दका अर्थ किसी भी परिणतिमें उपयुक्त होना भी होता है । अतएव परमाणु अथवा स्कन्धरूप पुद्गल भी उपयोग शब्दके द्वारा कहे जा सकते हैं। क्योंकि वे भी द्वयणुकादि स्कन्धरूप परिणति में उपयुक्त होते हैं । परन्तु उपयोग शब्दका यह अर्थ सर्वथा असंगत है, इस बातको बतानेके लिये ही आगे भाष्यकार कहते हैंकि जीवका लक्षण उपयोग है, यह बात पहले कही जा चुकी है। अर्थात् जब उपयोग जीवका ही लक्षण है । तब पुद्गल के विषयमें उसकी कल्पना करना सर्वथा विना सम्बन्धकी बात है - बिलकुल अयुक्त है । क्योंकि उपयोगसे चैतन्यलक्षण ही लिया जाता है । द्रव्येन्द्रियादिककी अपेक्षा लेकर स्पर्शादिक विषयोंकी तरफ ज्ञानकी जो प्रवृत्ति होती है, उसको अथवा स्पर्शनादिक इन्द्रियोंके द्वारा उद्भूत होनेवाले उस ज्ञानको जो कि विषयकी मर्यादापूर्वक स्पर्शादिके भेदको अवभासित करनेवाला है उपयोग कहते हैं । यह आत्माका ही परिणाम है, न कि 1 अन्य द्रव्यका | 1 इस इन्द्रियोंके प्रकरणमें निर्वृत्ति आदिक जो इन्द्रियों के भेद गिनाये हैं, उनकी प्रवृत्तिका क्रम इस प्रकार है कि-निर्वृत्तिके होनेपर ही उपकरण और उपयोग हुआ करते हैं । तथा लब्धिके होनेपर ही निर्वृत्ति उपकरण और उपयोग हुआ करते हैं । क्योंकि निर्वृत्तिके विमा उपकरणकी रचना नहीं हो सकती और उपकरणके विना उपयोगकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इसी प्रकार लब्धि विना ये तीनों ही निवृत्ति उपकरण और उपयोग नहीं हो सकते। क्योंकि तत्तद् इन्द्रियावरणकर्मका क्षयोपशम हुए विना इन्द्रियोंके आकार की रचना नहीं हो सकती, और उसके विना ज्ञानकी अपने अपने स्पर्शादिक विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । अतएव इन चारोंकी मिलकर ही इन्द्रिय संज्ञा हुआ करती है, न कि इनमेंसे अन्यतमकी | क्योंकि इन चारोमेंसे एकके भी विना विषयका ग्रहण नहीं हो सकता । - भावार्थ - उपयोग शब्द से इन्द्रियजन्य मतिज्ञान विशेष -चैतन्य परिणाम समझना चाहिये । यह उपयोग दो प्रकारका होता है - एक विज्ञानरूप दूसरा अनुभवरूप । घटादि पदार्थोंकी उपलब्धिको विज्ञान और सुखदुःखादिके वेदनको अनुभव कहते हैं। यह उपयोग पाँचो इन्द्रियों के द्वारा हुआ Jajn Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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