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________________ सूत्र १८-१९ । ] समाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूत्र--लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥१८॥ ___ भाष्यम्-लब्धिरुपयोगस्तु भावेन्द्रियं भवति । लब्धिर्नाम गतिजात्यादिनामकर्मजनिता तावरणीयकर्म क्षयोपशमजनिता च । इन्द्रियाश्रयकर्मोदयनिर्वृत्ता च जीवस्य भवति। सा पञ्चविधा, तद्यथा-स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः, रसनेन्द्रियलब्धिः, घ्राणेन्द्रियलब्धिः, चक्षुरिन्द्रियलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरिति ॥ . अर्थ-भावेन्द्रियके दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । गति जाति शरीर आदि नामकर्मके उदयका निमित्त पाकर जो उत्पन्न होती है, और जो तत्तद् इन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है, उसको लब्धि कहते हैं । एवं च पूर्वोक्त इन्द्रियोंका तथा आङ्गोपाङ्ग और निर्माणनामकर्मका आश्रय लेकर जीवके ये लब्धिरूप इन्द्रियाँ निष्पन्न हुआ करती हैं । तथा अन्तरायकर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा लेकर इन्द्रियोंके विषयका उपभोग-ग्रहण करनेके लिये जो ज्ञानशक्ति प्रकट होती है, उसको लब्धि कहते हैं । यह लब्धि इन्द्रियों के भेदसे पाँच प्रकारकी है-स्पर्शनेन्द्रियलब्धि, रसनेन्द्रियलब्धि, घ्राणेन्द्रिय लब्धि, चक्षुरिन्द्रियलब्धि, और श्रोत्रेन्द्रियलब्धि । भावार्थ-लब्धि नाम प्राप्तिका है । सो उपर्युक्त कर्मोदयादिके कारणको पाकर ततद् इन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे उस जीवको उस उस इन्द्रियके विषयको ग्रहण करनेकी जो शक्ति प्रकट होती हैं, उस लाभको ही लब्धि कहते हैं। इसके होनेसे उस उस इन्द्रियके विषयको ग्रहण करनेकी जीवमें योग्यता प्राप्त होती है । अतएव इन्द्रिय भेदसे इस लब्धिके भी पाँच भेद हैं। ___उपयोगका स्वरूप यहाँपर नहीं बताया है। उपयोग शब्दसे मतिज्ञानादिक पाँचों प्रकारका सम्यग्ज्ञान अथवा तीन अज्ञान सहित आठों ही प्रकारका उपयोग लिया जा सकता है । परन्तु अवधि आदिक अतीन्द्रियज्ञान उपयोग शब्दसे अभीष्ट नहीं हैं, क्योंकि वे इन्द्रियोंकी तथा उनके कारणोंकी अपेक्षासे उत्पन्न नहीं होते । अतएव यहाँपर उपयोग शब्दसे कौनसा उपयोग लेना चाहिये, इस बातको बतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं। सूत्र-उपयोगः स्पर्शादिषु ॥ १९ ॥ भाष्यम्-स्पर्शादिषु मतिज्ञानोपयोगः इत्यर्थः । उक्तमेतदुपयोगो लक्षणम् ।” उपयोगः १-आदि शब्दसे शरीरकर्म आदि जो जो सहायक हैं, उन सबका ग्रहण समझना चाहिये, आयुकर्मके विषयमें मतभेद है-किसीको उसका भी ग्रहण इष्ट है, किसीको वह इष्ट नहीं है । २-इस विषयमें भी मतभेद मालूम होता है जैसा कि श्रीसिद्धसेनगणीके इन वाक्योंसे प्रकट होता है कि-"अन्ये पुनराहुः-अन्तरायकर्मक्षयोपशमापेक्षा" इत्यादि। ३-किसीके मतमें यह सूत्र ही नहीं है । कोई कहते हैं, कि यह भाष्यका पाठ है, जो कि सूत्ररूपमें बोला. जाने लगा है। किंतु श्रीसिद्धसेनगणीने सूत्र ही माना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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