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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽध्यायः भावार्थ-जो भावेन्द्रियकी सहायक हैं, उनको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । वह दो प्रकारकी हैं, निर्वृत्ति और उपकरण । निर्वृत्ति भी दो प्रकारकी होती है, आभ्यंतर और बाह्य । जो निर्वृत्तिका उपकारक है, उसको उपकरण कहते हैं। इसके भी दो भेद हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । आङ्गोपाङ्ग और निर्माणनामकर्मके उदयके निमित्तसे तत्तत् इन्द्रियोंका आकार बना करता है। तत्तद् इन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे युक्त आत्माके असंख्यात प्रदेश उस उस इन्द्रियके
आकारमें परिणत हुआ करते हैं। तथा उन्हीं आत्मप्रदेशोंके स्थानमें उस उस इन्द्रियके आका. रमें जो पुद्गल द्रव्यकी रचना उक्त दोनों कोंके निमित्तसे होती है, उसको भी द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । इनका स्वरूप चक्षुरिन्द्रियमें अच्छी तरह घटित होता है । और समझमें आता है, अतएव उसीमें घटित करके यहाँ बताते हैं । -चक्षुरिन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशयसे युक्त अङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आत्मप्रदेशोंका चक्षुरिन्द्रियके आकारमें बनना इसको आभ्यन्तरनिर्वृत्ति कहते हैं। और तद्योग्य पुद्गलस्कन्धोंका मसूरके आकारमें परिणत होना, इसको बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं । कृष्ण शुक्लवर्णका जो उसी इन्द्रियके आकारमें परिमण्डल दिखाई देता है, उसको आभ्यन्तर उपकरण कहते हैं । और पलक विनोनी आदिको बाह्य उपकरण कहते हैं।
इसी प्रकार अन्य इन्द्रियोंके विषयमें भी यथायोग्य घटित करके समझ लेना चाहिये। इन्द्रियोंका आकार-स्पर्शनेन्द्रियके सिवाय चारका नियत है, और स्पर्शनेन्द्रियका अनियत है । श्रोत्रेन्द्रियका आकार यवनालीके सदृश, चक्षुरिन्द्रियका आकार मसूर अन्न विशेषके समान, प्राणेन्द्रियका आकार अतिमुक्तक पुष्प विशेषके तुल्य और रसना इन्द्रियका आकार क्षुरप्र-खुरपा सरीखा हुआ करता है। स्पर्शनेन्द्रियका आकार शरीरके अनुसार नाना प्रकारका हुआ करता है।
बाह्य और अभ्यन्तर उपकरण निवृत्तिरूप द्रव्येन्द्रियका बाह्य वस्तुसे घात नहीं होने देते, और अपने कार्यकी प्रवृत्तिमें सहायता किया करते हैं । मूलगुण निर्वर्तना शब्द उत्तरगुणनिर्वर्तनाको भी सूचित करता है । अतएव जिन बाह्यपदार्थोसे उन इन्द्रियोंको सहायता मिला करती है, उनको उत्तरगुण निर्वर्तना कहते हैं। जैसे कि चक्षुके लिये अञ्जन आदिके द्वारा संस्कार करना।
भावेन्द्रिय के भेद और स्वरूप बतानेके लिये सूत्र कहते हैं---
१-" चख्खू सोदं घाणं जिन्भायारं मसूरजवणाली । अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु अणेयसंठाणं ॥ १७०" . (गोम्मटसार जीवकांड)। तथा--" फासिदिए णं भंते! किं संठिएपण्णते? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए, जिभिदिएणं भंते ! किं संठिएपण्णते ? गोयमा ! खुरप्प संठिए, घाणिदिएणं भंते ! किंठिए पणत्ते ? गोयमा ! अतिमुत्तयचंदकसंठिए, चक्खुरिदिएणं भंते ! कि संठिएपण्णत्ते ? गोयमा ! मसूर यचंदसंठिएपण्णत्ते सोइंदिए णं भंते ! किंसंठिए पण्णते ? गोयमा ! कलंबुयापुप्फसंठिए पण्णत्ते " ( प्रज्ञा० सूत्र १९१ )२-श्रीसिद्धसेनगणीके कथनानुसार उपकरणके ये दो भेद आगममें नहीं बताये हैं । किसी तरहसे आचार्यकी सम्प्रदाय इनको कहनेकी प्रचलित है। यथा-" आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहि द उपकरणस्येत्याचार्यस्यैवकुतोऽपि सम्प्रदाय इति” ।
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