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________________ सूत्र १५-१६-१७ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ८९ भावार्थ-जीवकी चैतन्य शक्तिको ये इन्द्रियाँ ही सूचित करती हैं, इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिको देखकर अनुमान होता है, कि इस शरीरमें जीव है । परन्तु सभी जीवोंके पाँचोही इन्द्रियाँ नहीं होती, किसीके एक किसीके दो किसीके तीन किसीके चार और किसीके पाँचो होती है । परन्तु ये एक दो आदि किन किनके होती हैं, सो सूत्रकार स्वयं ही आगे चलकर बतायेंगे । यहाँपर तो इन्द्रियोंकी संख्याकी इयत्ता ही बताई है कि इन्द्रियाँ पाँचही हैं । इस नियमसे जो पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय इस तरह दश भेद मानते हैं, उनका निराकरण होता है। इन पाँच इन्द्रियोंमेंसे रसनासे लेकर श्रोत्रपर्यन्त चार इन्द्रियोंका आकार नियत है, परन्तु स्पर्शनेन्द्रियका आकार अनियत है । इन इन्द्रियोंके उत्तर भेद और विषय विभागादिका आगे चलकर वर्णन करेंगे। किन्तु सबसे पहले इनके सामान्य भेदोंको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-दिविधानि ॥ १६ ॥ भाष्यम्-द्विविधानीन्द्रियाणि भवन्ति । द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि च । तत्र अर्थ—इन्द्रियाँ दो प्रकारकी हैं-एक द्रव्येन्द्रिय दूसरी भावेन्द्रिय । आत्माके असंख्यात प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनंत पद्गल प्रदेशोंके द्वारा जो तत्तत् इन्द्रियोंका आकार विशेष बनता है, उसको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । और कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षासे आत्माकी जो परिणति विशेष होती है, उसको भावेन्द्रिय कहते हैं । इनमेंसे क्रमानुसार द्रव्येन्द्रियके आकार और भेदोंको बतानेके लिये सत्र कहते हैं--- सूत्र-निर्वत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ भाष्यम्-निर्वृत्तीन्द्रियमुपकरणेन्द्रियं च द्विविधं द्रव्यन्द्रियम् । निर्वृत्तिरङ्गोपाङ्गनामनिर्वर्तितानीन्द्रियद्वाराणि कर्मविशेषसंस्कृताः शरीरप्रदेशाः । निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलगुणनिर्वर्तनेत्यर्थः। उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरंच। निर्वर्तितस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति॥ ___ अर्थ-द्रव्येन्द्रियके दो भेद हैं-निवृत्तीन्द्रिय और उपकरणेन्द्रिय । निवृत्ति नाम रचनाका है । अर्थात् भावेन्द्रियके उन द्वारोंको जिनकी कि रचना अङ्गोपाङ्गनामकर्मके द्वारा हुई है, और जो कि कर्मविशेषके द्वारा संस्कृत शरीरके प्रदेशरूप हैं, उनको निवृत्तीन्द्रिय कहते हैं। अर्थात् निर्माणनामकर्म और अङ्गोपाङ्गनामकर्मके निमित्तसे जिसकी रचना होती है, उस मूलगुणनिवर्तनाका ही नाम निर्वृत्तीन्द्रिय है। जो उस रचनाका उपघात नहीं होने देता, तथा उसकी स्थिति आदिकमें जो सहायता करता है, इन दो प्रकारोंसे जो उस रचनाका उपकार करनेवाला है, उसको उपकरण कहते हैं । इस उपकरणके दो भेद हैं-एक बाह्य दूसरा अभ्यन्तर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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