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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्वितीयोऽध्यायः जलकायिक जीवोंके शरीरका आकार जलकी विन्दुके समान है । अग्निकायिक जीवोंके शरीरका आकार सूचीकलाप-सुइयोंके पुंजके समान है । वायुकायिक जीवोंके शरीरका आकार ध्वजाके समान है। वनस्पतिकायिक और त्रस जीवोंके शरीरका आकार नानाप्रकारका है-किसी भी एक प्रकारका निश्चित नहीं हैं।
पहले अध्यायमें " तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् " इत्यादि सूत्रोंमें तथा " द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः " इत्यादि स्थलोंमें इन्द्रियोंका उल्लेख किया है, परन्तु उनके विषयमें अभीतक यह नहीं मालम हुआ, कि उनकी संख्याका अवसान कहाँपर होता है-उनकी संख्या कितनी है, अतएव उनकी संख्याकी इयत्ता बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र--पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ भाष्यम्-पञ्चेन्द्रियाणि भवन्ति । आरम्भो नियमार्थः, षडादिप्रतिषेधार्थश्च । “ इन्द्रियं इन्द्रलिङ्गमिन्द्रदिष्टमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा ।" इन्द्रो जीवः सर्वद्रव्येष्वैश्यर्ययोगात् विषयेषु वा. परमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गमिन्द्रियम्, लिङ्गनात् सूचनात् प्रदर्शनादुपष्टम्भनाद् व्यञ्जनाञ्च जीवस्य लिंगमिन्द्रियम् ॥
अर्थ-इन्द्रियाँ पाँच हैं। इस सूत्रका आरम्भ नियमार्थक है। जिससे नियम रूप इस प्रकारका अर्थ सिद्ध होता है, कि इन्द्रियाँ पाँच ही हैं-अर्थात् न छह हैं, और न चार हैं। इसलिये छह आदिक संख्याका प्रतिषेध करना नियमका प्रयोजन सिद्ध होता है । इन्द्रके लिङ्गको इन्द्रिय कहते हैं । लिङ्ग शब्दसे पाँच अभिप्राय लिये जाते हैं
१-इन्द्रका ज्ञापक-बोधक चिन्ह, २ इन्द्रके द्वारा अपने अपने कार्योंमें आज्ञप्त, ३ इन्द्रके द्वारा देखे गये, ४ इन्द्रके द्वारा उत्पन्न, और ५ इन्द्रके द्वारा सेवित-अर्थात् जिनके द्वारा इन्द्र शब्दादिक विषयोंका सेवन-ग्रहण करे । इन्द्र नाम जीवका है । क्योंकि जो ऐश्वर्यको धारण करनेवाला है, उसको इन्द्र कहते हैं, और सम्पूर्ण द्रव्योंमें जीवका ही ऐश्वर्य पाया जाता है, अथवा समस्त विषयोंमें इसके उत्कृष्ट ऐश्वर्यका सम्बन्ध है । अर्थात् जीव सब द्रव्योंका प्रभ-स्वामी है और समस्त विषयोंका उत्कृष्टतया भोक्ता है, अतएव वह इन्द्र है। और इसके लिङ्गको इन्द्रिय कहते हैं । इन्द्रियाँ जीवको सूचित करनेवाली हैं, जीवसे आज्ञप्त होकर अपने अपने विषयमें प्रवृत्ति करनेवाली हैं, जीवको प्रदर्शित करनेवाली हैं, अथवा जीवके द्वारा स्वयं प्रदर्शित होती हैं, जीवके निमित्तसे ही इनकी उत्पत्ति होती है, और जीव इनके द्वारा इष्ट विषयोंका प्रीतिपूर्वक सेवन करता है, अतएव ये जीवकी लिङ्ग हैं।
१-मसूराम्बुषपृत्सूचीकलापध्वजसन्निभाः । धराप्तेजोमरुत्काया नानाकारास्तस्त्रसाः ॥ ५७ ॥ -श्रीअमृतचन्द्रसूरि-तत्त्वार्थसार । २-पाणिनीय अध्याय २ पाद ५ सूत्र ९३ । इन्द्रदिष्टमितिपाठः कचिन्नास्ति । टीकाकारैस्तु संगृहीतः।
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