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________________ सूत्र १४ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । पृथिवी आदिके भेद और भी तरहसे ग्रन्थान्तरोंमें बताये हैं, सो वे भी उन ग्रन्थोंसे जान लेने चाहिये। त्रसोंके भेद भेद बतानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-तेजोवायू दीन्द्रियादयश्च त्रसाः ॥ १४ ॥ . भाष्यम्-तेजाकायिका अङ्गारादयः, वायुकायिका उत्कलिकादयः, द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रिया इत्येते वसा भवन्ति । संसारिणस्त्रसाः स्थावरा इत्युक्ते एतदुक्तं भवति मुक्ता नैव सा नैव स्थावरा इति ॥ __अर्थ-अङ्गार किरण ज्वाला मुर्मुर शुद्धाग्नि आदिक अग्निकायिक जीवोंके अनेक भेद हैं। घनवात तनवात उत्कलिका मंडलि इत्यादि वायकायिक जीवोंके भी अनेक भेद हैं। तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन सब जीवोंको त्रस कहते हैं। यहाँपर संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं, ऐसा कहनेसे अर्थापत्ति प्रमाणके द्वारा यह बात स्पष्ट सिद्ध होजाती है, कि मुक्तजीव न त्रस हैं और न स्थावर हैं। अर्थात वे इन दोनों ही संसारकी अवस्थाओंसे सर्वथा रहित हैं । भावार्थ-जिस तरह पूर्व सूत्रसें स्थावरोंका उल्लेख क्रियाकी प्रधानतासे किया गया है, उसी प्रकार इस सूत्रमें त्रसोंका भी विधान क्रियाकी ही प्रधानतासे समझना चाहिये । क्योंकि कर्मकी अपेक्षासे द्वीन्द्रियादिक ही त्रस हैं । पाँच स्थावरोंके समान द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके भी अनेक भेद हैं । यथा-शंख शुक्ति गिंडोला कौढी चनूना आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं । घुण मत्कुण (खटमल) जं चींटी आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं। भ्रमर मक्खी मच्छर बर पतंग तितली आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं। सर्प पक्षी मत्स्य आदिक और सम्पूर्ण मनुष्य और पश पंचेन्द्रिय जीव हैं। पाँच स्थावर और त्रस जीवोंके शरीरका आकार इस प्रकार है-पृथिवीकायिक जीवोंके शरीरका आकार मसूरके समान है। १-पृथिवी पृथिवीकाय पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव । इस तरह पृथिवीके चार भेद हैं । इसी प्रकार जलादिक पाँचो ही स्थावरोंके चार चार भेद समझ लेने चाहिये । काठिन्य गुणके धारण करनेवाली सामान्यसे चेतन और अचेतन दोनों ही प्रकारकी पुद्गलकी स्वाभाविक पृथनक्रियायुक्त पर्यायविशेषको पृथिवी कहते हैं । इसके मृत्तिका बालुका आदि ३६ भेद श्रीअमृतचंद्रआचार्यने तत्त्वार्थसारमें गिनाये हैं । जिसके पृथिवीनामकर्मका उदय है, उस जीवके द्वारा ग्रहण करके पुनः छोड़े हुए शरीरको पृथिवीकाय कहते हैं। जिसके पृथिवीनामकर्मका उदय है, और जिसने पृथिवीको शरीररूपसे धारण भी कर रक्खा है, उसको पृथिवीकायिक कहते हैं । जो पृथिवीकायिक पर्यायको धारण करनेवाला है, परन्तु अभीतक जिसने शरीरको धारण नहीं किया है, किंतु जिसके पृथिवीनामकर्मका उदय हो आया है, ऐसे विग्रहगतिमें स्थित जीवको पृथिवीजीव कहते हैं । इसी तरह जल जलकाय जलकायिक जलजीव आदिके भेद भी समझ लेने चाहिये । जलकायिक आदि जीवोंके भी भेद श्रीअमृतचंद्र आचार्यने तत्त्वार्थसारमें दिखाये हैं। २-इसका कारण पहले लिखा जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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