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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ द्वितीयोऽध्यायः
प्रश्नका उत्तर अभीतक नहीं हुआ है, जिसके कि विषयमें यह कहा गया था, कि जीवका लक्षण आगे चलकर करेंगे । इसके सिवाय एक बात यह भी है, कि ये पाँच भाव व्यापक नहीं हैं । अतएव जो जीवमात्रमें व्यापकरूपसे पाया जा सके, ऐसे त्रिकालविषयक और सर्वथा अव्यभिचारी जीवके लक्षणको बतानेकी आवश्यकता है। अतएव ग्रंथकार दसरे प्रश्नके उत्तरमें जीवका संतोषकर लक्षण बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ भाष्यम्-उपयोगो लक्षणं जीवस्य भवति ॥ अर्थ-जीवका लक्षण उपयोग है ।
भावार्थ-ज्ञानदर्शनकी प्रवृत्तिको उपयोग कहते हैं । अनेक वस्तुओंमें मिली हुई किसी भी वस्तुको जिसके द्वारा पृथक् किया जा सके, उसको लक्षण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-आत्मभूत और अनात्मभूत । जो लक्ष्यमें अनुप्रविष्ट होकर रहता है, उसको आत्मभूत कहते हैं, और जो लक्ष्यमें अनुप्रविष्ट न रहकर हा उसका अनुगमक होता है, उसको अनात्मभूत कहते हैं । जीवका उपयोग आत्मभत लक्षण ह । यह लक्षण त्रिकालाबाधित और अव्याप्ति अतिव्याप्ति असंभव इन तीन दोषोंसे सर्वथा रहित है। क्योंकि कोई भा जीव ऐसा नहीं है, जिसमें कि ज्ञान और दर्शन न पाया जाय, कमसे कम अक्षरके अनंतवें भागप्रमाण तो ज्ञान जीवमें रहता ही है । तथा और कोई ऐसा पदार्थ भी नहीं है, कि उसमें भी ज्ञान और दर्शन पाया जा सके, एवं दृष्ट और अदृष्ट प्रमाणोंसे उपयोग लक्षणवाला जीव द्रव्य सिद्ध है, अतएव उसमें असंभव दोष भी असंभव ही है।
इस लक्षणके उत्तर भेद बतानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-स दिविधोऽष्टचतुर्भेदः॥९॥ भाष्यम्-स उपयोगो द्विविधः साकारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः।स पुनर्यथासंख्यमष्टचतुर्भेदो भवति। ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः। तद्यथा। मतिज्ञानोपयोगःश्रुतज्ञानोपयोगः, अवधिज्ञानोपयोगः, मनःपर्यायज्ञानोपयोगः, केवलज्ञानोपयोग इति, मत्यज्ञानोपयोगः, श्रुतज्ञानोपयोगः, विभङ्गज्ञानोपयोग इति । दर्शनोपयोगश्चतुर्भेदः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनोपयोगः, अचक्षुदर्शनोपयोगः, अवधिदर्शनोपयोगः, केवलदर्शनोपयोग इति।
१-“ व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम् ।” २--लक्ष्यके एकदेशमें रहनेको अव्याप्ति, लक्ष्य और अलक्ष्य दोनोंमें रहनेको अतिव्याप्ति और लक्ष्यमात्रमें लक्षणके न रहनेको असंभव दोष कहते हैं। ३--यह बात पहले अध्यायके अंतमें (टिप्पणीमें ) बताई जा चुकी है।
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