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सूत्र ८-९ । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।।
अर्थ-जीवका लक्षणरूप उपयोग दो प्रकारका है, एक साकार दूसरा अनाकार । ज्ञानोपयोगको साकार और दर्शनोपयोगको अनाकार कहते हैं । इनके भी क्रमसे आठ और चार भेद हैं । ज्ञानोपयोगके आठ भेद इस प्रकार हैं:---मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग, मनःपर्यायज्ञानोपयोग, और केवलज्ञानोपयोग, तथा मत्यज्ञानोपयोग, श्रुता. ज्ञानोपयोग, विभङ्गज्ञानोपयोग । दर्शनोपयोगके चार भेद इस प्रकार हैं-चक्षुर्दर्शनोपयोग, अच. क्षुर्दर्शनोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग, और केवलदर्शनोपयोग ।
भावार्थ-यद्यपि इस सूत्रके विषयमें किसी किसीका ऐमा कहना है कि यहाँपर तत् (स) शब्दका पाठ नहीं करना चाहिये, परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तर विषयका ही सम्बन्ध दिखानेके लिये उसके ग्रहण करनेकी आवश्यकता है, जैसे कि “स आस्रवः” इत्यादि सूत्रोंमें किया गया है।
सविकल्प परिणतिको ज्ञान और निर्विकल्प परिणतिको दर्शन कहते हैं। इनकी प्रवृत्ति क्रमसे इस प्रकार होती है, कि पहले दर्शनोपयोग और पीछे ज्ञानोपयोग । इस क्रमके कारण यद्यपि पहले दर्शनोपयोगका और पाछे ज्ञानोपयोगका पाठ करना चाहिये; परन्तु दर्शनकी अपेक्षा ज्ञान अभ्यर्हित-पूज्य है, और उसका वक्तव्य विषय भी अत्यधिक है, तथा उसके ही भेदभी अधिक हैं, अतएव ज्ञानोपयोगका ही पूर्वमें पाठ करना उचित है ।
किसी किसीका ऐसा भी कहना है, कि ज्ञान और दर्शनसे भिन्न भी उपयोग होता है, जो कि विग्रहगतिमें जीवोंके पाया जाता है । परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि इसमें युक्ति और आगम दोनोंसे ही बाधा आती है। ज्ञानदर्शनसे भिन्न उपयोग पदार्थ किसी भी युक्ति अथवा प्रमाणसे सिद्ध नहीं है । आगममें भी उपयोगके ज्ञान आरै दर्शन ऐसे दोही भेद गिनाये हैं-इन दोनोंसे रहित कोई भी अवस्था उपयोगकी नहीं बताई। तथा विग्रहगतिमें भी ज्ञान पाया जाता है, यह बात भी आगम-वाक्योंसे सिद्ध होती है । तथा विग्रहगतिमें लब्धिरूप इन्द्रियाँ भी रहती ही हैं। अतएव ज्ञान दर्शन रहित उपयोगकी अवस्था नहीं रहती यह बात सिद्ध है।
१-अध्याय ६सूत्र २ । २-" जस्स दवियाता तस्स उबयोगाता णियमा अस्थि जस्स उबयोगाता तस्स नाणाया • वा दसणाया वा णिमया अस्थि,” (भगवत्यां श० १२ उ० १० सूत्र ४६७)। “अपज्जत्तगाणं भंते ! जीवा किं नाणी
अण्णाणी ? तिनि गोयमा! नाणा तिनि अण्णाणाए।" (भगवत्यां श०८ उ० २ सूत्र ३१९) तथा-"जाइस्सरो उभंगवं अप्पडिवडिएहि तिहिं उ नाणहिं।" (आवश्यक नियुक्ति ऋषभजन्माधिकारे)। ३-" जीवेणं भंते! गब्भाओ गम्भं वक्कम.माणे किं सइदिए. बक्कमइ अणिदिए बक्कमइ ? गोयमा ! सिय सइंदिए सिय अणिदिए, से केणष्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! दन्विन्दियाइं पडुच्च अणिदिए वक्कमति लद्धिन्दियाई पड्डुच्च सईदिए पक्कमति ।" (भगवत्या श० १ उ. . सूत्र ६१) अर्थात् जीव विग्रहगंतिमें लब्धिरूप इन्द्रियोंकी अपेक्षासे इन्द्रिय सहित ही जाता है ।
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