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सूत्र ७।]
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
हैं, एक शुभ दूसरी अशुभ । कापोत नील और कृष्ण ये क्रमसे अशुभ अशुभतर और अशुमतम हैं । पीत पद्म और शुक्ल लेश्या क्रमसे शुभ शुभतर और शुभतम हैं । किस लेश्याके परिणाम कैसे होते हैं, इसके उदाहरण शास्त्रोंमें प्रसिद्ध हैं, अतएव यहाँ नहीं लिखे हैं।
पारिणामिक भावोंके तीन भेद जो बताये हैं, उनको गिनानेके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्र-जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥ ७ ॥ " भाष्यम्-जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमित्येते त्रयः पारिणामिका भावा भवन्तीति । आदिग्रहणं किमर्थमिति ? अत्रोच्यते-अस्तित्वमन्यत्वं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं गुणवत्वमसर्वगतत्त्वमनादि. कर्मसंतानबद्धत्वं प्रदेशत्वमरूपत्वं नित्यत्वमित्येवमादयोऽप्यनादिपारिणामिका जीवस्य भावा भवन्ति । धर्मादिभिस्तु समाना इत्यादिग्रहणेन सूचिताः । ये जीवस्यैव वैशोषिकास्ते स्वशब्देनोक्ता इति । एते पञ्च भावास्त्रिपञ्चाशद्भेदा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति । अस्तित्वा. दयश्च । किं चान्यत् ।।
__ अर्थ-जीवत्व भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव हैं । प्रश्न-इस सूत्रमें आदि शब्दके ग्रहण करनेका क्या प्रयोजन है ? उत्तर-अस्तित्व अन्यत्व कर्तृत्व भोक्तत्व गुणवत्व असर्वगतत्व अनादि कर्मसंतानबद्धत्व प्रदेशत्व अरूपत्व नित्यत्व इत्यादिक और भी अनेक जीवके अनादि पारिणामिक भाव होते हैं । परन्तु ये भाव जीवके असाधारण नहीं हैं। क्योंकि ये धर्मादिक द्रव्योंमें भी पाये जाते हैं, अतएव उनके समान होनेसे साधारण हैं, इसी लिये इनको आदि शब्दका ग्रहण करके साधारणतया सूचित किया है । जो जीवमें ही पाये जाते हैं, ऐसे विशेष- असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं, और इसीलिये उनका खास नाम लेकर उल्लेख किया है।
इस प्रकार औपशमिकादिक पाँच भाव जो बताये हैं, वे जीवके स्वतत्व-निजस्वरूप हैंजीवमें ही पाये जाते हैं, अन्यमें नहीं । इनके सिवाय जीवके साधारण स्वतत्व अस्तित्वादिक भी हैं । औपशमिक आदि पाँच भावोंके २+९.. १८+२१+३ के मिलानेसे कुल ५३ भेद होते हैं।
भावार्थ-असंख्यात प्रदेशी चेतनताको जीवत्व कहते हैं । भव्यत्व और अभव्यत्व गुणका लक्षण पहले बताया जा चुका है, कि जो सिद्ध-पदको प्राप्त करनेके योग्य है, उसको भव्य कहते हैं, और जो इसके विपरीत है, सिद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकता, उसको अभव्य कहते हैं । अस्तित्वादिक साधारण भावोंका अर्थ स्पष्ट है ।
इस प्रकार जीवके स्वतत्वोंका वर्णन किया । पहले दो प्रश्न जो किये थे, उनमेसे पहले प्रश्नका उत्तर देते हुए जीवके स्वतत्वोंका निरूपण करके उसका स्वरूप बताया । परन्तु दूसरे
१-गोम्मटसार जीवकाण्ड, लेश्याधिकार, गाथा ५०६ से ५१६ तक ।
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