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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 59
आध्यात्मिक गुणों का पोषण करना ही उपबृंहण गुण है। सम्यक्-आचरण करने वाले गुणिजनों की प्रशंसा आदि करके उनके सम्यक् आचरण में सहयोग देना।
६. स्थिरीकरण :- किसी कारण धर्म-मार्ग से च्युत होते हुए, चंचल चित्त वाले व्यक्ति को सहयोग देकर उसे उन गुणों में, अथवा धर्ममार्ग में स्थिर करना, स्थिरीकरण गुण है।
____७. वात्सल्य :- साधर्मिक के प्रति, अर्थात् धर्मात्माओं के प्रति स्नेह-भाव रखना तथा उनके कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करना वात्सल्य-गुण है। वात्सल्य का प्रतीक गाय और गोवत्स का प्रेम है। वात्सल्य-गुण का संघ एवं समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
८. प्रभावना :- जनकल्याण की भावना से अपने आचरण और प्रतिभा से धर्म का प्रचार-प्रसार करना प्रभावना नामक गुण है।
जिस प्रकार किसी विषहारी मन्त्र में एक अक्षर के भी न्यून हो जाने से वह विष दूर करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार इन आठों अंग में से एक अंग से भी हीन सम्यग्दर्शन हमारी संसार-संतति को नष्ट करने में समर्थ नहीं होता है। संवेगरंगशाला में सम्यग्दर्शन को उसके उपयुक्त आठ अंगों से पालन करना ही दर्शनाचार कहा गया है। ३. चारित्र-आराधना : संवेगरंगशाला में सम्यक्-चारित्र को आराधना का तृतीय चरण कहा गया है। जैन-आचार-दर्शन में सम्यक्चारित्र का कार्य आत्मा के समत्व का संस्थापन माना गया है। प्रस्तुत कृति में सम्यक्चारित्र को परिभाषित करते हुए कहा गया है- सर्वपापप्रवृत्तियों के त्यागपूर्वक सत्प्रवृत्ति करना ही सम्यक्चारित्र है। चारित्र के दो रूप माने गए हैं- 'निश्चयचारित्र' और 'व्यवहारचारित्र'। निश्चय-चारित्र को निवृत्तिमूलक एवं व्यवहारचारित्र को प्रवृत्तिपूरक कहा गया है। रागद्वेषादि वैभाविक भावों से रहित होकर परम-आत्मभाव में अवस्थित होना ही निश्चयचारित्र कहलाता है। यही आत्मरमण की स्थिति है।
40 संवेगरंगशाला, गाथा ५६०-६०२
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