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60 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध आचार नियमों के परिपालन से है। मन-वचन -काया की अशुभ प्रवृत्ति को त्यागकर व्रत, समिति आदि शुभ प्रवृत्तियों में लीन होना व्यवहारचारित्र है। इसे देशविरत और सर्वविरत-ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। देशविरतचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ से एवं सर्वविरतचारित्र का सम्बन्ध मुनियों से है।1
श्रमण-आचार के अन्तर्गत पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्मों के पालन करने का निर्देश है। साथ ही पाँच इन्द्रियों का दमन करना, बारह भावनाओं का चिन्तन करना, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति का पालन करना, कषायों का निग्रह करना, बयालिस दोषों से रहित पिण्डविशुद्धि का पालन करना, इत्यादि विविध आचारों का उल्लेख किया गया है। संवेगरंगशाला में आगे यह भी प्रतिपादित किया गया है कि श्रमण को बारह भिक्षु प्रतिमाओं का सम्यक् पालन करना चाहिए एवं सामायिक्चारित्र, छेदोपस्थापनीयचारित्र, परिहारविशुद्धिचारित्र, सूक्ष्मसम्परायचारित्र और यथाख्यातचारित्र-इन पाँचों चारित्र का श्रमण को पालन करना चाहिए।*2
डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' में चारित्र के विविध वर्गीकरणों का उल्लेख किया है। उनमें प्रथम चारित्र का वर्गीकरण दो रूपों में किया गया है- १. निश्चय-चारित्र और २. व्यवहारिक-चारित्र। त्रिविध वर्गीकरण में क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिकइस तरह तीन प्रकार के चारित्र का वर्णन किया गया है। चतुर्विध वर्गीकरण में चारित्र को घट की उपमा देकर फूटे घड़े के समान, जर्जरित घट के समान, परिश्रावी घड़े के समान एवं अपरिश्रावी घड़े के समान-ऐसे चार प्रकार बताए गए हैं। पंचविध वर्गीकरण में सामायिक आदि पाँच चारित्रों का वर्णन किया गया है।
__ इसके अतिरिक्त उन्होंने सम्यक्चारित्र का स्वरूप बताते हुए कहा है - चित्त अथवा आत्मा की वासनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना ही सम्यक्चारित्र का अर्थ है। यह अस्थिरता या मलिनता स्वाभाविक नहीं, वरन् वैभाविक है, बाह्य भौतिक एवं तज्जनित आन्तरिक कारणों से है।43
41 जैनतत्वविद्या (चरणानुयोग), पृ.- १३७. 4- संवेगरंगशाला, गाथा ६०५-६१२ । 4 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ.-८४.
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