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58 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री हमारी विचारशुद्धि का आधार है। आचारशुद्धि के लिए विचार की शुद्धि अनिवार्य है। जिस प्रकार मानव-शरीर में दो हाथ, दो पैर, नितम्ब, पीठ, वक्षस्थल और मस्तक-ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों के परिपूर्ण होने पर ही मनुष्य कोई काम करने में समर्थ होता हैं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी निःशंकित, आदि आठ अंग हैं। इन आठ अंगों से युक्त सम्यग्दर्शन का पालन करने से ही संसार संतति का उन्मूलन होता है। संवेगरंगशाला में सम्यग्दर्शन के निम्न आठ अंगों का विवेचन उपलब्ध होता है।२६
१. निःशंकित :- वीतराग जिनोपदिष्ट तत्वों में विश्वास करना, उनके प्रति शंकारहित होना, अर्थात् वीतराग द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग में अविश्वास नहीं करना- यही निःशंकित अंग है।
२. निःकांक्षित :- लोक-परलोक सम्बन्धी विषय-भोगों की आकांक्षा नहीं करना आनन्दमय परमात्मस्वरूप में निष्ठावान् रहना - यह निःकांक्षित गुण है। जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों की आकांक्षा नहीं करना- इसे सम्यग्दर्शन का गुण माना गया है।
३. निर्विचिकित्सा :- संवेगरंगशाला में निर्विचिकित्सा के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं- १. फल के प्रति संदेह नहीं करना और २. साधु के प्रति दुर्गन्छा नहीं करना, अर्थात् धार्मिकजनों के ग्लानिजनक रूप को देखकर घृणा नहीं करना, अपितु उनके गुणों के प्रति आदरभाव रखना - इसे निर्विचिकित्सा गुण कहा गया है। पुनः, मैं जो धर्म या साधना कर रहा हूँ, इसका फल मुझे मिलेगा या नहीं, मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जाएगी-ऐसी आशंका रखना भी विचिकित्सा है। इस प्रकार जैनाचार्यों के अनुसार तपस्वी एवं संयमपरायण मुनियों के दुर्बल एवं जर्जर शरीर, अथवा मलिन वेशभूषा आदि बाह्यरूप पर ध्यान न देकर मुनिगण के साधनात्मक गुणों पर विचार करना चाहिए, तथा धर्मक्रिया के फल के प्रति आश्वस्त रहना चाहिए - यही निर्विचिकित्सा है।
___ ४. अमूढ़दृष्टि :- मूढ़ता, अर्थात् अज्ञान। हेय-ज्ञेय-उपादेय, योग्य-अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता नहीं होना ही मूढ़ता है। जैनसाहित्य में मूढ़ता के तीन प्रकार उपलब्ध होते हैं। - देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता।
५. उपबृंहण :- उपबृंहण के दो अर्थ हैं - प्रकट नहीं करना, अथवा पोषण करना। दूसरों के दोषों को और अपने गुणों को छिपाकर रखना तथा
39 संवेगरंगशाला, गाथा ५६७-५६६.
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