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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 57 शास्त्र अभ्यास करना - यही ज्ञानाराधना है। शास्त्र के मूल एवं अर्थ का बार-बार स्मरण करना, मात्र इतना ही नहीं, आराधक द्वारा उन्हें विस्मृत नहीं होने देने के लिए नियमपूर्वक उनका पठन-पाठन करना ज्ञानाराधना के लिए आवश्यक है। ज्ञान के उपकरण एवं गुरुजनों का विनय करना चाहिए तथा जिस शास्त्र का जिस गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है, उसका नाम नहीं छिपाना चाहिए, अपितु उनके प्रति आदर भाव रखना चाहिए। प्रस्तुत कृति में कहा गया है ज्ञानाराधना हेतु आराधक को आठ अतिचारों या दोषों से बचना चाहिए तथा कालाचार, विनयाचार, बहुमानाचार, उपधानाचार, अनिहूनवाचार, शब्दाचार, अर्थाचार, तदुभयाचार - इन आठ आचारों का सम्यक् रूप से पालन करना चाहिए। इससे सम्यग्ज्ञान पुष्ट और परिष्कृत होता है। 37 संवेगरंगशाला में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि जो आराधक वाचना, पृच्छना, परावर्तना, प्ररूपणा और धर्मकथा - ऐसे पाँच प्रकार के स्वाध्याय को परम एकाग्रता से करता है, उसकी ज्ञानाराधना आगे बढ़कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। स्वाध्याय चाहे दिन में करें, अथवा रात्रि में करें, अकेले करें, अथवा सामूहिक रूप से करें, बैठे-बैठे करें, अथवा खड़े-खड़े करें, लेकिन उसे मन- इन्द्रिय और शरीर को संयमित करके करना चाहिए। आराधक जिस किसी अवस्था में हो, उसके चित्त में ज्ञानाराधना हेतु उत्साह में कमी नहीं आना चाहिए, अर्थात् यथावत् उत्साहपूर्वक ज्ञान का उपार्जन करना चाहिए । पुनः, ज्ञान को ग्रहण करने के पश्चात् आचरण में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए । संवेगरंगशाला में कहा गया है- जो निरतिचारपूर्वक आठ ज्ञान- आचारों का पालन करता है, वह ज्ञानी पुरुष आराधना के लक्ष्य को प्राप्त करता है, जैसे सम्यग्ज्ञान गुण से युक्त ज्ञानी पुरुषों की हमेशा सेवा, भक्ति एवं आदर करना चाहिए। इस प्रकार आठ ज्ञानाचारों का पालन करते हुए, पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना एवं ज्ञान और ज्ञानीजनों के प्रति विनय करना - यही ज्ञानाराधना है। 38 २. दर्शनाराधना : जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल आधार माना गया है। सम्यग्दर्शन के अभाव में न तो सम्यग्ज्ञान होता है और न सम्यक् चारित्र ही । सम्यग्दर्शन को मोक्ष - महल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। यह 36 संवेगरंगशाला, गाथा ५८६. 37 संवेगरंगशाला, गाथा ५८६ 38 - संवेगरंगशाला, गाथा ५६०-५६६ Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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