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54/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
अध्याय - २ संवेगरंगशाला में सामान्य आराधना का स्वरूप
(गृहस्थधर्म और मुनिधर्म)
आराधना का स्वरूप एवं प्रकार :
संवेगरंगशाला मुख्यतः आराधना या साधनाप्रधान ग्रन्थ है। जैन-परम्परा में आराधना या साधना के दो प्रकार बताए गए हैं- १. सामान्य आराधना और २. विशेष आराधना। विशेष आराधना को अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना भी कहा जाता है। साधक जो अपने जीवनकाल में सामान्य रूप से व्रत, नियम, आदि की आराधना, अर्थात् उनका पालन करता है और अपनी जीवनचर्या को जिनाज्ञा के अनुरूप बनाता है, उसे सामान्य आराधना के नाम से जाना जाता है; किन्तु जीवन के अन्तिम चरण में जब मृत्यु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही हो, तब विशेष रूप से जो आराधना या साधना की जाती है, उसे अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना कहते हैं। संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने दोनों ही प्रकार की आराधनाओं का वर्णन किया है। यद्यपि उनका बल मुख्य रूप से अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना पर रहा है, फिर भी उसे अन्तिम आराधना की पूर्व भूमिका के रूप में स्वीकार कर सामान्य आराधना का विवेचन भी उन्होंने किया है।
जहाँ तक सामान्य आराधना का प्रश्न है, जैन-परम्परा में उसे पुनः दो भागों में बाँटा गया है- १. गृहस्थ-साधक की आराधना और २. मुनि की आराधना; किन्तु इसके साथ ही एक ऐसी सामान्य आराधना या साधना भी है, जो गृहस्थ और मुनि- दोनों के लिए आवश्यक है। इसके अन्तर्गत सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सम्बन्धी आराधना आती है। गृहस्थ-जीवन मे रहते हुए भी जो
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