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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 55
पाँच अणव्रतों और गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमाओं की साधना की जाती है, वह गृहस्थ की विशेष आराधना के अन्तर्गत आती है। दीक्षित होकर व्यक्ति जिन पाँच महाव्रतों तथा पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप आठ प्रवचनमाताओं आदि की जो आराधना करता है, वह मुनि-जीवन की विशेष आराधना मानी जाती है।
जैनधर्म की यह विशेषता है कि उसमें गृहस्थ और मुनि-दोनों के लिए जीवन के अन्तिम क्षणों में अन्तिम आराधना, अर्थात् समाधिमरण की साधना का निर्देश दिया गया है। अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना तो व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या मुनि- दोनों के लिए ही आवश्यक मानी गई है। संवेगरंगशाला में मुख्यता तो अन्तिम आराधना को ही प्रदान की गई है, किन्तु प्रसंगवश गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का भी उसमें उल्लेख हुआ है। उसके प्रथम परिकर्मविधिद्वार के अन्र्तगत दूसरे लिंग-उपद्वार में आराधक गृहस्थ के बायलिंग का विचार किया गया है। इसी प्रकार इसी परिकर्मविधिद्वार के नौवें परिणाम उपद्वार में पुत्र की अनुशास्ति, अर्थात् पुत्र की शिक्षाओं का उल्लेख हुआ है। इसमें पुत्र को गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित अनेक शिक्षाएँ प्रदान की गई हैं। प्रसंगानुसार इसमें यह भी बताया गया है कि गृहस्थ-जीवन की प्रतिमाओं को स्वीकार करने के पश्चात् जब तक साधक मुनि-दीक्षा को ग्रहण नहीं करता है, तब तक उसे जिनमन्दिर आदि दस स्थानों पर अपनी अर्जित सम्पत्ति का सदुपयोग करना चाहिए। इस प्रकार गृहस्थ के लिंग (वेशभूषा), उसके व्रत, उसकी प्रतिमाएँ, आदि का उल्लेख हमें इस ग्रन्थ में संक्षिप्त रूप में मिल जाता है।
__जहाँ तक मुनि-जीवन की आराधना का प्रश्न है, संवेगरंगशाला के प्रथम परिकर्मविधिद्वार में साधु के बाह्यवेश आदि की चर्चा के साथ-साथ उसके त्याग, विनय, अनियतविहार, आदि का भी उल्लेख हुआ है। प्रथम परिकर्मद्वार के दूसरे लिंगद्वार और तीसरे शिक्षाद्वार में हमें मुनि-आचारधर्म का उल्लेख मिलता है, किन्तु यह विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त रूप में ही उपलब्ध होता है। संवेगरंगशाला का मुख्य विवेच्य विषय तो अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना ही है। संवेगरंगशाला के प्रथम परिकर्मद्वार के तीसरे शिक्षाद्वार में ग्रहण शिक्षा और आसेवन-शिक्षा ऐसी दो प्रकार की शिक्षाओं का उल्लेख हुआ है। उसी में आसेवन-शिक्षा के अन्तर्गत सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सामान्य चर्चा के पश्चात् गृहस्थ और मुनि-दोनों के आचारधर्म का उल्लेख हुआ है। उसमें पहले गृहस्थ के विशेष आचार-धर्म का और तदनन्तर मुनि के विशेष आचार-धर्म का उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत प्रसंग में हम इसी आधार पर सर्वप्रथम गृहस्थ और मुनि की सामान्य आराधना की चर्चा करेंगे और उसके पश्चात् क्रमशः गृहस्थ और
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