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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /53 उसका मात्र १०वाँ अंश ही है। इस ग्रन्थ में अन्तिम आराधना का विवेचन विभिन्न द्वारों के आधार पर किया गया है। इसमें कुल ३२ द्वार वर्णित हैं। शैली की अपेक्षा से इसकी कुछ समानता संवेगरंगशाला से देखी जा सकती है, फिर भी जितना व्यवस्थित विवेचन वीरभद्र की आराधनापताका में हुआ है, उतना विवेचन इन प्रकीर्णकों में नहीं हुआ है। जहाँ तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है, उसमें अन्तिम आराधना या समाधिमरण से सम्बन्धित एक ही ग्रन्थ हमारे ध्यान में है, यह ग्रन्थ भगवतीआराधना या मूलाराधना नाम से जाना जाता है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के पूर्व उल्लेखित समाधिमरण से सम्बन्धित ग्रन्थों की अपेक्षा इस ग्रन्थ का आकार विस्तृत है। यह ग्रन्थ २१६४ गाथाओं में वर्णित है। यद्यपि श्वेताम्बर-परम्परा के ग्रन्थों के समान यह ग्रन्थ भी अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित सभी पक्षों का वर्णन करता है, फिर भी इसका विषय-विभाजन संवेगरंगशाला से भिन्न ही है। इसमें द्वार-प्रतिद्वार जैसा विभाजन परिलक्षित नहीं होता है। दूसरे, ये सभी ग्रन्थ मुख्यतया समाधिमरण के साधक को किस प्रकार का आचरण करना चाहिए, इस पर ही अधिक बल देते हैं। समाधिमरण ग्रहण करने की विधि के कुछ निर्देश तो हैं, फिर भी वे उतने विस्तृत और व्यापक नहीं हैं, जैरो संवेगरंगशाला में प्रस्तुत किए गए हैं। संवेगरंगशाला में जो द्वारों और प्रतिद्वारों का उल्लेख है, वह वीरभद्रकृत आराधनापताका से प्रभावित है। फिर भी जैसा हम स्पष्ट कर चुके हैं, वीरभद्रकृत आराधनापताका की अपेक्षा संवेगरंगशाला में जो कथाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। यद्यपि मरणविभक्ति-संस्तारकप्रकीर्णक, प्राचीन आचार्यकृत आराधनापताका, भगवतीआराधना और वीरभद्राचार्यकृत आराधनापताका में कथाओं के निर्देश तो मिलते हैं, किन्तु वे कथा को समग्र रूप से प्रस्तुत नहीं करते हैं। इस दृष्टि से यदि हम यह देखें, तो जिनचन्द्रसूरिकृत संवेगरंगशाला का अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित ग्रन्थों में एक महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना को लेकर लगभग १०००० गाथाओं में लिखा गया यह वृहत्काय ग्रन्थ समाधिमरण सम्बन्धी श्वेताम्बर और दिगम्बर-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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