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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 43
११. मरणविभक्तिद्वार, १२. अधिगत (पण्डित) मरणद्वार १३. श्रेणिद्वार १४ . भावनाद्वार और १५. संलेखनाद्वार | 32
दूसरे परगणसंक्रमणद्वार के दस प्रतिद्वार इस प्रकार हैं :- १. दिशाद्वार २. क्षामणाद्वार ३. अनुशास्तिद्वार ४. परगणसंक्रमणद्वार ५. सुस्थितगवेषणाद्वार ६. उपसम्पदाद्वार ७. परीक्षाद्वार ८. प्रतिलेखनाद्वार ६. पृच्छाद्वार और १०. प्रतिपृच्छाद्वार।
तीसरे ममत्वविच्छेदनद्वार के नौ अन्तरद्वार हैं, वे इस प्रकार हैं :
१. आलोचनाद्वार २. शय्याद्वार ३. संथाराद्वार ४ निर्यापकद्वार ५. दर्शनद्वार ६. हानिद्वार ७. प्रत्याख्यानद्वार ८. क्षमापनाद्वार ६. क्षामणाद्वार ।
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चौथे समाधिलाभद्वार में भी निम्न नौ अन्तरद्वार हैं :- १. अनुशास्तिद्वार २. प्रतिपत्तिद्वार ३. सारणाद्वार ४. कवचद्वार ५. समताद्वार ६. ध्यानद्वार ७. लेश्याद्वार आराधनाफलद्वार और ६. मृत शरीर विसर्जनद्वार (विजहनाद्वार)। वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका भी मुख्यतः अन्तिम आराधना, अर्थात् समाधिमरण से सम्बन्धित है। इस प्रकीर्णक में कुल ६८६ गाथाएं हैं। इस प्रकीर्णक में समाधिमरण का सुन्दर विवेचन उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम इसमें मरण के भेदप्रभेदों का वर्णन किया गया है। समाधिमरण के दो भेदों में अविचार - भक्तपरिज्ञा और सविचार - भक्तपरिज्ञामरण का विस्तृत विवेचन किया गया हैं। इसमें भी सर्वप्रथम चार द्वारों का उल्लेख है - १. परिकर्म विधिद्वार २. गणसंक्रमणद्वार ३. ममत्वछेदद्वार और ४. समाधि लाभद्वार। इसमें भी इस तरह समाधिमरण सम्बन्धी आराधना को चार द्वारों में वर्गीकृत कर पुनः इन्हें प्रतिद्वारों में विभक्त किया गया है।
इन चारों द्वारों के क्रमशः ग्यारह, दस, दस और आठ प्रतिद्वार हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में भगवान् महावीर की वन्दना करके गौतमादि पूर्वाचार्यों द्वारा अनुभूत और कथित आराधना के स्वरूप के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। इसके पश्चात् लेखक ने चार उपायों का तथा पाँच प्रकार के मरण का उल्लेख किया है। फिर श्रुतदेवता की वन्दना करने के पश्चात् सविचारभक्तपरिज्ञामरण के चार द्वारों का निर्देश हैं। प्रथम परिकर्मविधिद्वार के अन्तर्गत १. अर्हताद्वार, अर्थात् भक्तपरिज्ञा करने वाले की योग्यताद्वार २. लिंगद्वार ३ शिक्षाद्वार ४. विनयद्वार ५. समाधिद्वार ६. अनियतद्वार ७. परिणामद्वार ८. त्यागद्वार ६. निःश्रेणिद्वार १०.
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श्री वीरभद्राचार्य विरचित 'आराधनापताका' पइण्णयसुत्ताई, भाग-२, गाथा १६८६
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