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40 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
इस प्रकीर्णक में शल्यरहित होकर आलोचना करने का निर्देश है। साथ ही इसमें तप के बारह भेदों का तथा संलेखना के बाह्य और आभ्यन्तर - भेदों का निरूपण है। इसमें सर्वसंघ से क्षमायाचना करने का तथा वेदना को सहन करने का भी उपदेश है, साथ ही शरीर के प्रति ममत्व त्याग, उपसर्ग और परीषह सहन करना तथा अशुभध्यान के त्याग करने का इसमें वर्णन है। इसमें सोलह प्रकार के रोगान्तकों को सहन करने के सम्बन्ध में सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टान्त दिया गया है। इसके अतिरिक्त मुनिचन्द्र, सुमनभद्र और आर्यरक्षित आदि के भी दृष्टान्त उपलब्ध हैं। ये कथाएं संवेगरंगशाला में भी दी गई हैं। सांसारिक दुःखों को मनुष्य वैसे ही सुख मानता है, जैसे नीम के वृक्ष पर उत्पन्न कीड़ा मधुरता से अनभिज्ञ नीम की कटुता को ही मधुर मानता है। अन्त में लोकसंज्ञा को जानकर पण्डितमरण मरना चाहिए, ऐसा उल्लेख है । "
२०. प्राचीन आचार्यविरचित आराधनापताका :
मंगल और अभिधेय के पश्चात् इसमें ३२ द्वारों में समाधिमरण या आराधना का उल्लेख है। इसमें ४३२ गाथाएं हैं। इसके संलेखनाद्वार में कषाय-संलेखनारूप आभ्यन्तर - संलेखना और शरीरसंलेखनारूप बाह्य-संलेखना - ऐसे संलेखना के दो भेद बताए गए हैं। अग्रिम द्वारों में संलेखनाधारक क्षपकमुनि का गुरु द्वारा परीक्षण, साधुओं के कर्त्तव्यों का निरूपण, भक्तपरिज्ञा करने वाले की योग्यता का कथन, अगीतार्थ के समीप अनशन का निषेध, धर्मध्यान में बाधक स्थानों का निषेध, क्षपकयोग्य वसति का निरूपण, योग्य संस्तारक का वर्णन और आहार दान के विषय में निरूपण मिलता है। अग्रिम द्वारों में गणनिसर्गद्वार, आलोचनाद्वार, व्रतोच्चारद्वार, अनुमोदनद्वार, पापस्थानव्युत्सर्जनद्वार मुख्य हैं। अठारह पापस्थानव्युत्सर्जनद्वारों में प्रत्येक पाप के सन्दर्भ में एक-एक कथा दी गई है। अनशनद्वार में साकार और निराकार के त्यागपूर्वक क्षपक द्वारा अनशन - ग्रहण का विस्तार से निरूपण है। उन्नीसवें अनुशिष्टिद्वार में अनुशिष्टि के १७ प्रतिद्वारों का वर्णन है। इसके पश्चात् कवचद्वार, आराधनाफलद्वार और अन्त में मोक्षप्राप्ति के लक्ष्यपूर्वक आराधना का माहात्म्य बताया गया है। 30
समाधिमरण से सम्बन्धित प्रकीर्णक - साहित्य में संवेगरंगशाला वर्णित चार मूलद्वारों के प्रतिद्वारों का उल्लेख मात्र ' आराधनापताका' में ही मिलता है, अन्य प्रकीर्णकों में नहीं। अन्य प्रकीर्णकों में केवल मूलद्वारों का ही उल्लेख किया गया है। संवेगरंगशाला में केवल समाधिमरण सम्बन्धी विवेचन न होकर, आराधना
29 मरणसमाधि, गाथा १७६-६६१
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आराधनापताका (प्राचीन आचार्य विरचित) - पइण्णयसुत्ताई, भाग २, गाथा १-६३२
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