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38 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
अपराधों की क्षमा चाहता हूँ और सभी मुझे क्षमा करें।" इस प्रकार क्षमापना और गर्दा करते हुए साधक मृगावती की भांति अनन्त भवों में अर्जित कर्मों का क्षण-भर में क्षय कर देता है, जबकि मिथ्यात्व से मोहित चित्तवाला तुरूमिणीदत्त के समान दारुण दुःख को प्राप्त करता है। इसका उल्लेख करने के पश्चात् यह कहा गया है कि सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट हैं, दर्शनभ्रष्ट का निर्वाण नहीं होता है। जो सम्यक्दर्शन प्राप्त कर लेता है, उसका संसार में परिभ्रमण सीमित हो जाता है। सम्यक्दर्शन से युक्त व्यक्ति ही मुक्ति का अधिकारी बन जाता है। इसके पश्चात् जिनोक्तसूत्र की महत्ता बताते हुए यवराजर्षि की कथा दी गई है। फिर उपशम, विवेक और संवर से चिलातीपुत्र ने केवलज्ञान तथा अमरत्व को प्राप्त किया, इसका उल्लेख है।
इसके अतिरिक्त भी इस प्रकीर्णक में क्रोध के सन्दर्भ में नन्द, मान के सम्बन्ध में परशुराम, माया के सम्बन्ध में पाण्डुआर्या तथा लोभ के सम्बन्ध में लोभानन्दी की कथाएं दी गई हैं, जो संवेगरंगशाला में भी उपलब्ध हैं। फिर इन्द्रिय-विषयों से विमुख रहने का तथा वेदना एवं परीषह से विचलित न होने का उपदेश दिया गया है।24
संवेगरंगशाला के समान उत्तम समाधिमरण को प्राप्त हुए ऐसे सुकौशलमुनि, अवन्तीसुकुमार एवं चाणक्य आदि पुण्यात्माओं का भी उल्लेख इसमें मिलता है। तदनन्तर जघन्य भक्तपरिज्ञा से साधक निम्न देवलोक को प्राप्त होते हैं, मध्यम भक्तपरिज्ञा वाले आराधक अच्युत देवलोक को प्राप्त होते हैं और उत्कृष्ट भक्तपरिज्ञा करने वाले आराधक निर्वाणरूप सर्वार्थसिद्ध विमान को प्राप्त करते हैं, यह उल्लेख है। इस भक्तपरिज्ञा-प्रकीर्णक के अन्त में इस प्रकीर्णक के माहात्म्य का निरूपण किया गया है। (१७) आराधना-सार, अथवा पर्यन्ताराधना :
___ इस प्रकीर्णक में २६३ गाथाएं और २४ द्वार हैं। प्रथम संलेखनाद्वार में उसके दो तथा तीन प्रकारों का उल्लेख है। काल की दृष्टि से संलेखना, बारह दिन, बारह पक्ष, बारह मास, और बारह वर्ष की होती है। दूसरे स्थानद्वार में ध्यान में बाधक स्थानादि को आराधक के लिए वर्जित बताया गया है। तीसरे विकटनाद्वार में गीतार्थ गुरु के समीप भावपूर्वक आलोचना करने का निर्देश है।
भक्तपरिज्ञा पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. ३१२-३२८, गाथा १-७४ 2 भक्तपरिज्ञा पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. १४८-१५५, गाथा १-७४
भक्तपरिज्ञा पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. १५६-१७२, गाथा १-७४
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